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दुखी भारत

की निन्दा से अपनी रक्षा करें। इसके विरुद्ध हमारे दबे हुए समालोचकों को केवल अपने असहाय फेफड़ों का ही भरोसा रहता है; वे कान में फुसफुसा सकते हैं, आह भर सकते हैं पर चिल्ला नहीं सकते। परन्तु क्या यह विदित नहीं है कि हमारे अस्पष्ट भाव जब हमारे मन की अँधेरी और मौन गुफाओं में घनीभूत होते हैं तब बड़े वेग से प्रज्वलित हो उठते हैं? सम्पूर्ण पूर्वी महाद्वीप दिन पर दिन पाश्चात्य समालोचकों-द्वारा ऐसी ही भड़क उठनेवाली वस्तुओं का एक आगार बनाया जा रहा है। ये समालोचक आनन्दमय कर्तव्य पालन के भाव से अपनी द्वेषपूर्ण धारणाओं को प्रतिक्षण प्रकट करने के लिए तैयार रहते हैं परन्तु यह नहीं सोचते कि उनके पाश्चात्य समाज में भी ऐसी ही नैतिक पतन की बातें विद्यमान हैं, हाँ उनकी बुराइयों की पोशाक भिन्न है जो उनकी 'फ़ैशनेबुल' संस्थानों या गलियों में तैयार हुई है। अस्तु, मैं अपने अँगरेज़ और दूसरे पाश्चात्य पाठकों को विश्वास दिलाता हूँ कि लेखिका ने उक्त पुस्तक में जिस उद्दाम विषय-भोग की शिक्षा को साधारण रिवाज बतलाया है और हमारी हँसी उड़ाते हुए उद्धरण उपस्थित किया है उसकी छाया तक न तो मुझे और न मेरे क्रुद्ध भारतीय मित्रों को, जो इस समय मेरे साथ हैं, कहीं दिखाई पड़ी है। मैं आशा करता हूँ कि पाश्चात्य पाठक जब स्वयं अपने योरप और अमरीका के समाज में, जो विशेष सभ्य समझा जाता है, कभी कभी ऐसी रोमाञ्चकारी घटनाओं के घटित हो जाने का स्मरण करेंगे, जो सन्देहविहीन जनता को एकाएक अनियमित विषय-भोग के सङ्गठित षड्य्न्त्रों की एक झलक दिखाकर चकित कर देती हैं, तब वे कतिपय आक्षेपों को पूर्ण रूप से अस्वीकार करने की मेरी कठिनाई को समझ लेंगे।

'न्यू स्टेट्समैन' के लेखक ने संसार के कल्याण के लिए यह सम्मति दी है कि भारतवर्ष के जिन लोगों की, उनके पापाचारों के लिए, इस महिला यात्री ने निन्दा की है उनकी उदार ब्रिटिश सिपाहियों द्वारा रक्षा नहीं होनी चाहिए और न उन्हें जीवित रहने के लिए सहायता मिलनी चाहिए। यह लेखक स्पष्ट रूप से इस बात की उपेक्षा करता है कि इन जातियों ने स्वयं उसकी जाति की अपेक्षा बिना ब्रिटिश सिपाहियों की सहायता के शताब्दियों के लम्बे समय तक अपने जीवन और संस्कृति की रक्षा की है। खैर, कुछ हो, ऐसे ही साधनों का प्रयोग मैं नहीं करना चाहता और इसी भाँति ऐसे लेखकों का अभाव कर देने की सम्मति देता हूँ जो जातीय घृणा की द्वेषपूर्ण छूत चारों ओर फैलाते हैं; क्योंकि चिढ़ाये जाने पर भी हमें धैर्य के साथ इस बात में विश्वास रखना चाहिए कि मनुष्य-स्वभाव में सुधार करने के लिए अनन्त शक्ति होती है। और हमें यह आशा करनी चाहिए कि मनुष्य में जो पशु-स्वभाव की हठधर्मी बनी हुई है वह