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'मदर इंडिया' पर कुछ सम्मतियाँ

शरीर-नाश के द्वारा हानिकारक बातों के मिटाने से नहीं बल्कि मस्तिष्क की शिक्षा और वास्तविक संस्कृति के संयम से दूर हो जायगी।

मोइंडॉक, बाली, श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर
६ सितम्बर, १९२७
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"डिचर"—स्वर्गीय मिस्टर पैट लेवेट—ने, जिन्हें भारतीय सम्पादनकला का ४० वर्षों का अनुभव था और जो कलकत्ते के 'कैपिटल' नामक ऐंग्लो इंडियन समाज के प्रमुख व्यापारी साप्ताहिक के सम्पादक थे, अपने ८ सितम्बर १९२७ ईसवी के पत्र में लिखा था—

गत सप्ताह के अन्त में मुझे उस पुस्तक की एक प्रति उधार पढ़ने को मिली। मैंने उस पुस्तक को अपना कर्तव्य समझ कर पढ़ा; पर ज्यों ज्यों पढ़ता गया मेरी उद्विग्नता बढ़ती गई। पहले तो मुझे एक सर्वोच्च निबन्धलेखक की यह सम्मति स्वीकार करनी पड़ी कि आज-कल की पुस्तके खूब बिकती हैं उनमें दस में नौ अच्छी पुस्तकें नहीं होती; दूसरे मुझे अमरीका की इस गन्दी लेखिका की बौद्धिक बेईमानी बहुत भयङ्कर प्रतीत हुई; और अन्त में उसकी सम्पूर्ण राष्ट्र के कंलकित करने के लिए अस्पतालों में जाकर अमानुषिक क्रूरताओं की खोज करने की पैशाचिक प्रवृत्ति अत्यन्त बीभत्स जान पड़ी। यह पुस्तक साहित्यिक गुणों से वञ्चित है। यह नारकीय कुरुचि-उत्पादक सम्पादन-कला का अत्यन्त भद्दा रूप है। गरम रोटियों की भांति यह कुछ तो इसलिए बहुत बिकी कि यह सन-सनी उत्पन्न करने वाली बातों से परिपूर्ण है पर अधिकांश में इसलिए कि यह भारतवर्ष की स्वराज्य की माँग के विरुद्ध एक नीच आन्दोलन की पुस्तक है और उपयुक्त अवसर पर प्रकाशित हुई हैं।

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भारत में अमरीका के एक ईसाई-धर्म-प्रचारक श्रीयुत ए॰ एच॰ क्लार्क ने, बम्बई के 'इंडियन सोशल रिफ़ार्मर' में मदर इंडिया के सम्बन्ध में ईसाई-धर्म-प्रचारकों के निम्नलिखित विचार प्रकाशित करवाये हैं—

मैं आशा करता हूँ कि आप मुझे २६ नवम्बर के 'रिफ़ार्मर' में प्रकाशित श्रीयुत एस॰ वीरभद्र के एक लेख का उत्तर देने के लिए थोड़ा सा स्थान देंगे। उस लेख में श्रीयुत वीरभद्र ने, यह स्वीकार करते हुए कि भारतवर्ष