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प्रचलित है। मेरी निजी राय यह है कि मैं सोलह वर्ष से कम आयु किसी कन्या का ब्याह होना सामाजिक पाप मानता हूँ, यद्यपि भारत की लड़कियां लगभग १२ वर्ष की आयु में ही विवाहयोग्य हो जाती हैं। विधवा-विवाह के मार्ग में जो रुकावटें हैं उनसे हम बराबर युद्ध करते चले आ रहे हैं। और निःसन्देह उन्नति के चिह्न प्रकट हो रहे हैं; यद्यपि अब भी बहुत कुछ करना शेष है। विधवा-विवाह की मनाही केवल कुछ ही जातियों में रह गई है, सबमें नहीं। प्रति वर्ष हजारों विधवा-विवाहों की सूचना प्रत्येक श्रेणी, प्रत्येक जाति और प्रत्येक वर्ग से मिलती है। मुसलमान और ईसाइयों में भी जातिभेद विद्यमान है। उनमें से कुछ अपनी विधवाओं को युनर्विवाह करने की आज्ञा नहीं देते। पर चौ-तरफा उन्नति हो रही है। ऐसी एक भी कट्टर जाति नहीं है जिसमें विधवा-विवाह न हुआ हो। गत दस वर्षो से कट्टर हिन्दुओं और समाज-सुधारकों में बड़ा घोर युद्ध चल रहा है, पर पहले दल के लोगों की इसमें काफी हार हुई है।

भारत में विवाह-स्वीकृत्ति की आयु १३ वर्ष है। बड़ी धारा-सभा में इसको १४ वर्ष कर देने का बिल उपस्थित है। पर सरकार की ओर से इसका विरोध किया जा रहा है। लड़कियों की विवाह की आयु १२ वर्ष नियत कर देने का एक दूसरा बिल भी उपस्थित किया गया है। दोनों व्यक्तिगत प्रस्ताव हैं और बड़ी व्यवस्थापिका सभा के हिन्दू सदस्यों द्वारा उपस्थित किये गये हैं।

इसी प्रकार अस्पृश्यता दूर करने के लिए भी शक्तिशाली और देशव्यापी उद्योग हो रहा है। अछूतोद्धार के लिए, दलित जातियों को शिक्षा-सम्बन्धी सुविधाएं देने के लिए, उनकी सामाजिक और आर्थिक दशा ऊँची उठाने के लिए हिन्दुओं की निजी संस्थाओं ने बड़ी बड़ी रक़में ख़र्च की हैं। यह वक्तव्य कि इस आन्दोलन के विरुद्ध 'असंख्य' आवाजें उठ रही हैं बिलकुल असत्य है और दुष्टता से भरा हुआ है; क्योंकि जो अत्यन्त कट्टर लोग हैं वे भी दलित जातियों के प्रति न्याय करने के लिए अब चिन्तित हैं। जातिभेद में मेरा खुद विश्वास नहीं है। मैं इसको एक-दम मिटा देने के पक्ष में हूँ। स्त्री-पुरुषो के वैवाहिक अधिकारों में भी मैं कोई भेद नहीं मानता।