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दुखी भारत


काल में अब तीन चौथाई लोगों की आरम्भिक शिक्षा का उत्तरदायित्व राज्य ने स्वीकार कर लिया है। आरम्भिक शिक्षा से यह माध्यमिक शिक्षा तक पहुँचा है। और विश्वविद्यालयों के ढङ्ग की शिक्षा में भी आर्थिक तथा अन्य प्रकार की सहायता देने लगा है। प्रोफसर हाबहाउस का यह कहना बिलकुल ठीक है कि आज-कल राज्य पर जो भार बढ़ गया है उसके अधिकांश भाग को प्राचीन पंडित 'पैतृक उत्तरदायित्व का आवश्यक कार्य्य' मानते हैं। आज 'वह कौटुम्बिक स्वतंत्रता अनिवार्य्य शिक्षा के रूप में बदल गई है।' '१८५० या १८६० के शिक्षा-मन्त्री के आय-व्यय-पत्र की तुलना वर्तमान शिक्षा-मन्त्री के आय-व्यय-पत्र के साथ की जाय तो राज्य के कर्तव्यों के विस्तार का इससे अच्छा उदाहरण और नहीं दिया जा सकता।'

ऐतिहासिक प्रमाण तो स्पष्ट ही है। यदि कोई १८७० के पूर्व की, या कुछ उससे भी पहले अर्थात् १८३० के सुधार कानूनों के बनने से पहले की इँगलैंड की धार्मिक, सामाजिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी, बौद्धिक और औद्योगिक स्थिति का अध्ययन करे तो ज्ञात होगा कि उस समय वहाँ के निवासी वर्तमान भारतवासियों की अपेक्षा कहीं अधिक गिरी दशा में थे। निरक्षरता का साम्राज्य था। रोग और दरिद्रता का चारों तरफ़ दौरदौरा था। कारखानों में स्त्री-बच्चों की दशा वर्णनातीत थी और किसी प्रकार के धर्माचरण का नाम निशान नहीं था। १८७० के पूर्व सार्वजनिक शिक्षा की बड़ी शोचनीय अवस्था थी। १९ वीं सदी में इँगलेंड की सफलताओं का वर्णन करते हुए इतिहासवेत्ता श्रीयुत जी॰ एम॰ ट्रिवेलियन लिखते हैं[१]:—

"महारानी विक्टोरिया के शासन-काल के अन्त में नये राष्ट्रीय सङ्गठन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि एक ओर तो भलाई के सार्वजनिक उद्योगों का राजकीय शासन से बहुत गहरा सम्बन्ध हो गया और दूसरी ओर स्थानिक तथा केन्द्रिक शासन आपस में मिल गये। पार्लियामेंट और स्थानिक शासन ने जनता की आवश्यकताओं पर ध्यान देना आरम्भ किया और केन्द्रिक शासन


  1. इँगलैंड का इतिहास, जी॰ एम॰ ट्रिवेलियन-कृत लांगमैन्स १९२६, पृष्ठ ६१७।