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मिस मेयो के तर्क


ने शिक्षा, चिकित्सा, सफाई और ऐसे ही जीवन के सैकड़ों सार्वजनिक कामों में बुद्धिमानी के साथ अधिकाधिक योग देना आरम्भ किया। इस प्रकार स्थानिक संस्थाओं की आर्थिक सहायता, श्रम और जीवन के राजकीय निरीक्षण, औद्योगिक विश्वास-सत्र और आधुनिक शिक्षण पद्धति आदि के द्वारा राजकीय सहायता, बल-प्रयोग और नियन्त्रण के नियमों की सृष्टि हुई।

पुनश्च:—

"मनुष्य-धर्म, प्रजातन्त्रवाद और शिक्षा में उन्नति होने से तथा औद्योगिक रीतियों में नये परिवर्तन के अनुसार दफ्तरों तथा कारखानों में अधिक संख्या में स्त्री-पुरुषों के साथ साथ काम करने से स्त्री-पुरुषों में बराबरी का भाव पैदा हुआ। स्त्री-शिक्षा (जिसकी ओर पहले बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता था) दोही पीढ़ियों के पश्चात् पुरुषों की शिक्षा के साथ तुलना करने योग्य हो गई। कानून की दृष्टि से कुटुम्ब में स्त्रियों का स्थान बदल गया तथा व्यवहार और जनता की सम्मति में उससे भी अधिक बदल गया। (कोष्टक के वाक्य हमारे हैं)[१]

योरप के कुछ देशों में तो ग्रेट ब्रिटेन से भी पहले ये कार्य्य आरम्भ हुए थे। जर्मनी ने १७१७ ई॰ में अनिवार्य्य शिक्षा का कानून पास किया था। चार्ल्स पियर्सन ने राष्ट्रीय जीवन और सदाचार[२] पर एक पुस्तक लिखी है। उसमें वे ब्रिटिश उपनिवेशों की, राज्य-शासन को अधिकाधिक सामाजिक कर्तव्य सौंपने की, प्रवृत्ति पर विचार करते लिखते हैं :—

"यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक योरपीय राष्ट्र ने—जिसमें जर्मन जाति से उत्पन्न राष्ट्र भी शामिल हैं इन्हीं सिद्धान्तों पर सदियों से काम किया है। और खास इँगलैंड में भी लेज़िज़ फेयर पद्धति का पहले पहल बलपूर्वक प्रयोग किया गया था।"

प्रत्येक राज्य और प्रत्येक राजनीतिज्ञ आज इन सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। व्यक्तिवादी, समाजवादी, शान्तिवादी और साम्यवादी सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि राज्य का यह देखना कर्त्तव्य है कि उसकी जनता निरक्षर न हो। समृद्धिशाली संयुक्त राज्य (अमरीका) भी इस सिद्धान्त को


  1. वही पुस्तक, पृष्ठ ६१८
  2. नेशनल लाइफ़ एंड कैरेक्टर, (मैकमिलन कं॰ १९१३) पृष्ठ, १९