मिस मेयो की पुस्तक में १३ वें अध्याय से १६ वें अध्याय तक भारतवर्ष की शिक्षा का वर्णन है। इनमें से पहले अध्याय का शीर्षक है—'हमें काम दीजिए या मौत' मिस मेयो अज्ञानता से ऐसा शीर्षक चुन कर जिससे भारत में ब्रिटिश सरकार की शिक्षा-नीति पर बड़ा घोर कलङ्क लगता है, इस बात का परिचय देती है कि उसे हास्य रस का बिलकुल ज्ञान नहीं है। पर जान पड़ता है कि वह भारत-सरकार के शिक्षा-सम्बन्धी कर्त्तव्य को स्वीकार ही नहीं करती। हिन्दुओं में दोष ढूँढना और शिक्षा की कमी तथा ब्रिटिश सरकार की शिक्षण-पद्धति की त्रुटियों के लिए उन्हीं को दोषी ठहराना उसका एक-मात्र उद्देश है। मदर इंडिया का तेरहवां अध्याय इस प्रकार आरम्भ होता है:—
"कुछ भारतीय राजनीतिज्ञ इस बात पर डटे हैं कि भारतीय जनता के लिए अनिवार्य्य शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए। वे कहते हैं:—इंगलैंड ने अपने घर में तो बहुत समय पूर्व अनिवार्य्य शिक्षा आरम्भ की थी। हमारे देश में वह ऐसा ही क्यों नहीं करता? क्योंकि भारतीय जनता को मूर्ख रखने से ही उसका स्वार्थ सधता है।"
मिस मेयो लिखती है कि 'उस समय मद्रास-प्रान्त में अब्राह्मण-दल के नेता' पनगल नरेश ने उसे इस बात का 'बढ़ा ज़ोरदार उत्तर दिया था।
"उन्होंने कड़क कर कहा—'सब व्यर्थ बक रहे हैं। अँगरेज़ों के आने से पहले ५,००० वर्षों में ब्राह्मणों ने हमारी शिक्षा के लिए क्या किया? क्या मैं आपको स्मरण दिलाऊँ कि नीची जाति के लोग यदि कभी पुस्तके पढ़ने का साहस करते थे तो ब्राह्मण लोग उनके कानों में सीसा गला कर छोड़ देना अपना अधिकार समझते थे। वे कहते थे कि सब विद्याओं का सम्बन्ध केवल उन्हीं से है। हमारे लिए मुसलमानी राज्य भी प्राचीन हिन्दू-शासन