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दुखी भारत


की अपेक्षा अच्छा था। पर केवल ब्रिटेन के राज्य में शिक्षा का द्वार सबके लिए खुला है। अब सरकारी स्कूल, कालिज और विश्वविद्यालयों में सब जाति, सब संप्रदाय और सब वर्ग के लोग भर्ती हो सकते हैं।"

इस वक्तव्य के पक्ष में एबे डुबोइस की पुस्तक से दो उद्धरण दिये गये हैं। पहले उद्धरण को अपने साधारण स्वभाव के अनुसार मिस मेयो ने उसके प्रासङ्किक प्रकरण से बिलकुल छिन्न-भिन्न करके रखा है। उसे हम नीचे देते हैं :—

"डुबोइस लिखता है—'ब्राह्मण लोग इस बात को भली भांति जानते थे कि ज्ञान उन्हें दूसरी जातियों पर कितना नैतिक प्रभुत्व देगा। इसलिए उन्होंने इसे एक रहस्य की वस्तु बना दिया और यथाशक्ति अन्य जातियों को कभी इसके पास फटकने भी नहीं दिया?"

जिस पैरा ग्राफ़ से यह उद्धरण लिया गया है उसके प्रथम दो वाक्यों को मिस मेयो ने छोड़ दिया है क्योंकि उसमें हिन्दुओं की इस बात की प्रशंसा की गई थी कि वे अति प्राचीन काल से विद्योपार्जन करते चले आ रहे हैं और ब्राह्मण तो सदा इसके भाण्डार[१] ही रहे हैं। मिस मेयो इस प्रकार का 'हानिकारक' वक्तव्य अपनी पुस्तक में नहीं जाने देना चाहती थी।

एवे की बातें कहाँ तक सत्य हैं इस पर हम विषय-प्रवेश में विचार कर चुके हैं। और पुनर्वार इस बात के स्मरण दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि कोई निष्पक्ष जिज्ञासु उस दूषित सामग्री पर विश्वास नहीं कर सकता। मिस मेयो के दूसरे साक्षी पनगल-नरेश ने—जैसा कि विषय-प्रदेश में उद्धृत उनके लेख से पता चलेगा—यह स्पष्ट कर दिया है कि अन्य स्थानों की भाँति यहाँ भी मिस मेयो ने 'इनवर्टेड कामाओं' के अनुचित प्रयोग का अपराध किया है। इनवर्टेड कामाओं में जो भाषा लिखी गई है वह इसी अमरीका की पत्रकार महिला की है। पनगल-नरेश की नहीं। राजा ने केवल शूद्रों के लिए वेदाध्ययन की मनाही का उल्लेख किया है। पर मिस मेयो ने अपने सुप-


  1. हिन्दू मैनर्स तृतीय संस्करण (आक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ ३७६)