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अमरप्रकाश


रिचित व्यापार की चालों का सहारा ले कर उसे अत्यन्त घातक रूप दे दिया है। इसमें सन्देह नहीं कि वेदपाठ 'सब विद्याएँ सीखने' और 'सब पुस्तकें अध्ययन करने' के बराबर नहीं है। इसके उपरान्त, ब्राह्मणों ने प्राचीन काल में क्या किया और क्या नहीं किया उससे वर्तमान निरक्षरता का क्या सम्बन्ध है? परन्तु मिस मेयो एक ऐसा आधार उपस्थित करने के लिए चिन्तित थी कि जिसकी सहायता से वह यह सिद्ध कर सके कि भारत में शिक्षा के लिए सरकार ने जो कुछ किया वह प्रशंसनीय है और इस ओर हिन्दू जो पिछड़े हुए हैं उसका सारा दोष उन्हीं के मत्थे है।

पनगल-नरेश का वक्तव्य एक दल-विशेष से सम्बन्ध रखता है और डुबोइस का वक्तव्य प्रामाणिक नहीं है। यह मान लिया जाय कि ब्राह्मण इतने दुष्ट थे कि उन्होंने सम्पूर्ण अब्राह्मण जाति के लिए शिक्षा का द्वार बन्द कर दिया—जो कि सर्वथा असत्य है—तो क्या एक पश्चिनीय शासन के लिए, जो ब्राह्मणों का तीव्र आलोचक है और जो अपने को सभ्य और 'अप-टू-डेट' कहता है, इस शताब्दी में भी ऐसा व्यवहार करना उचित है, क्या हम इसका यह अर्थ निकालें कि आधुनिक सफेद ब्राह्मणों ने प्राचीन भारत के काले और पीले ब्राह्मणों का स्थान ले लिया है और योरपीय जातियों से भिन्न वंशज जातियों को अज्ञान और बन्धन में रखने के लिए वे उन्हीं का अनुगमन कर रहे हैं।

परन्तु हिन्दू ब्राह्मणों को जो दोष लगाया जाता है वह निराधार है। और इसको निराधार सिद्ध करने के लिए हमारे पास प्रबल प्रमाण हैं। इस विषय पर एक ईसाई मिशनरी रेवरेंड 'एफ॰ ई॰ की' की लिखी एक छोटी सी पुस्तिका[१] हमारे सामने है। की महाशय ब्राह्मणों के दलाल नहीं हैं। आगे मैं इसी पुस्तक के आधार पर कुछ निवेदन करूँगा।

'रेवरेंड' 'की' ने ब्राह्मणों की शिक्षण-पद्धति को अति प्राचीन बतलाया है। वेदों के भिन्न भिन्न अङ्ग जिस समय पूर्णता प्राप्त कर चुके थे उस समय ब्राह्मणों की शिक्षण-पद्धति अति प्राचीन ही नहीं बरन भली भांति सुसङ्गठित भी थी।[२]


  1. एन्सियंट इंडियन एज्युकेशन। (प्राचीन भारत में शिक्षा) आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस १९१८
  2. वही पुस्तक पृष्ठ २७