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दुखी भारत

ब्राह्मणों की विद्यापीठों में पढ़ाई का क्रम आदि क्या था इस विषय का सविस्तर वर्णन करना अनावश्यक होगा। साधारणतः ब्राह्मणों के बालक वेद और दर्शन-शास्त्र का अध्ययन करते थे और इन्हीं विषयों के वे विशेषज्ञ होते थे। क्षत्रियों और वैश्यों के लिए ब्राह्मणों की अपेक्षा वेदाध्ययन की कम आवश्यकता समझी जाती थी। क्षत्रियों और वैश्यों को जीवन में जो कार्य्य करने पड़ते थे उनके लिए जिस प्रकार की शिक्षा आवश्यक होती थी वही वे वयस्क होने से पहले प्राप्त करते थे। धीरे धीरे उनका ब्राह्मणों के स्कूलों में जाना कम होने लगा और उनके भविष्य के कार्य्यों के लिए औद्योगिक स्कूल या कम से कम गार्हस्थ शिक्षा की उत्पत्ति[१] हुई। जब सबसे प्राचीन धर्मशास्त्रों की रचना हुई थी तब यह शिक्षण-पद्धति पूर्ण रीति से अपना कार्य्य कर रही थी। यह रचना-काल ईसा से ५०० वर्ष पहले का माना जाता है और ये धर्मशास्त्र अब तक प्रचलित हैं। यह प्रथा चल पड़ी थी कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों का यज्ञोपवीत संस्कार होता था। इस संस्कार के अनुसार वे ब्राह्मण गुरुओं के यहाँ पढ़ने जाते थे। और कम से कम १२ वर्ष[२] तक विद्याध्ययन[३] करते थे।

इसके पश्चात् (ईसा से पहले छठी और चौथी सदी के मध्य में) क्षत्रियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उस समय राजनीतिविद्या की उन्नति हो चुकी थी। 'भारतीय राजकुमारों की शिक्षा बहादुरी के समय के योरपीय वीरों की शिक्षा से किसी अंश में घट कर न थी। सबसे प्रबल विचार यह था कि राजा और सरदारों का कर्तव्य है कि वे निर्बलों की रक्षा करके समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करें। उनका पद गौरव के लिए या सुखभोग के लिए इतना नहीं समझा जाता था जितना दूसरों की सेवा के लिए।"

मनुस्मृति के आधार पर रेवरेंड 'की' लिखते हैं:—

"वैश्य को रत्नों, भोतियों, धातुओं, वस्त्रों, सुगन्धों और रसों का मूल्य अवश्य जानना चाहिए। उसे अच्छे और बुरे खेतों का ज्ञान होना चाहिए।


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ५७
  2. पृष्ठ ९७
  3. पृष्ठ ७१, ७२