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अमरप्रकाश


तथा उसे बीज बोने की कला आनी चाहिए। उसे नाप और तौल का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे क्रय-विक्रय की वस्तुओं के गुणागुण, भिन्न भिन्न देशों की सुविधा और असुविधा, बिक्री के माल पर लाभ या हानि का अन्दाज़ा और पशुपालन आदि की जानकारी होनी चाहिए। उसे कर्मचारियों के समुचित वेतन का और भिन्न भिन्न भाषाओं का ज्ञान भी रहना चाहिए।[१]

ब्राह्मणों के विद्यालय 'तोल' कहलाते थे और चारों तरफ़ गाँवों और शहरों में फैले हुए थे[२], कभी कभी किसी मुख्य तीर्थस्थान में या राजधानी में भी पास पास बहुत से तोल होते थे और सब मिल कर एक प्रकार के विश्व-विद्यालय की सृष्टि करते थे। बनारस और नदिया इसके उदाहरण हैं।

रेवरेंड की ईसा से कई शताब्दियों पूर्व की प्राचीन भारतीय शिक्षण-पद्धति के अनुसार गुरु और शिष्य के जीवन में एक अत्यन्त चित्ताकर्षक और सुन्दर चित्र[३] का अनुभव करते हैं। अध्यापक किसी आर्थिक लाभ की दृष्टि से शिक्षा नहीं देता था, बल्कि शिक्षा देना वह अपना एक मात्र कर्त्तव्य समझता था। उसे शुल्क लेने की आज्ञा नहीं थी। शिक्षा समाप्त कर चुकने पर शिष्य गुरु को दक्षिणा देता था। किन्तु धनी शिष्य को छोड़कर और किसी अवस्था में वह समुचित दक्षिणा नहीं होती थी[४]। शिष्य को, चाहे वह धनी हो चाहे निर्धन, सादा जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी जाती थी और उसका स्वभाव आत्म-संयम, श्रद्धा और आत्म-सम्मान के साँचे में ढाला जाता था। नियंत्रण कठिन होता था पर उसमें कटुता या पाशविकता का भाव नहीं रहता था। शिष्य को दण्ड देने में डिकेन्स के समय के अँगरेज़ों की अपेक्षा हिन्दू कहीं अधिक दयालुता से काम लेते थे। 'की' ने गौतम के यह नियम बनाने का उल्लेख किया है। 'शिष्य को शारीरिक दण्ड कदापि न दिया जाय। यदि उसके सुधार करने का कोई और उपाय न हो तो महीन कोड़े या बेत का प्रयोग किया जाय। यदि अध्यापक उसे किसी और चीज़ से मारेगा तो वह राज-दण्ड का भागी होगा।' मनु भी यही नियम स्वीकार करते हैं पर इतना


  1. वही पुस्तक, पृष्ट ७२-७३
  2. पृष्ठ ५१
  3. पृष्ठ ३६
  4. पृष्ठ, ३५