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दुखी भारत


भाग सम्मिलित नहीं था। और स्त्रियों में तो यह कदाचित थी ही नहीं[१]।"

अन्तिम वाक्य में 'की' महोदय ने जो अनुमान किया है वह इस शिक्षण-पद्धति के ह्रास के समय जो अङ्क मिल सकते थे उन्हीं के आधार पर है। तब भी कम से कम पञ्जाब की स्त्रियों में साक्षरता का बिलकुल अभाव होने की बात प्रमाणों से सिद्ध नहीं होती। इस बात को आगे हम सरकारी वक्तव्यों से दिखलायेंगे। यहाँ 'की' की पुस्तक के अन्तिम अध्याय का थोड़ा सा रोचक अंश और देख लीजिए[२]:—

"(बहुत कम देश ऐसे हैं, योरप में तो निश्चय रूप से एक भी नहीं है, जहाँ की शिक्षण-पद्धति का इतना क्रमबद्ध इतिहास पाया जाता हो और जिसका इतना कम परिवर्तन हुआ हो जितना कि भारत की शिक्षण-पद्धति का।) वे लम्बी शताब्दियाँ जिनमें ये शिक्षण-पद्धतियाँ अपना काम कर रही थीं, इस बात की प्रमाण है कि इन शिक्षण-पद्धतियों में कुछ मूल्यवान् बातें अवश्य थीं और वे बातें, जिन्होंने इन पद्धतियों को अपनाया और विकसित किया उनकी आवश्यकता के प्रतिकूल नहीं थीं। उन्होंने कितने


  1. हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन भारतीय पाठशालाशों और उनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या कम अनुमान की गई थी। जहाँ सहानुभूति रखने वाले अफ़सरों की प्रधानता में काम होता था वहाँ भी नीचे के कर्म्मचारी जो संख्या एकत्रित कर रहे थे इस शिक्षण पद्धति के प्रति उचित सहानुभूति से काम न लेते थे। इसके अतिरिक्त जो इस कार्य्य में लगे थे उन्हें स्वयं जनता भी सन्देह की दृष्टि से देखती थी। डाक्टर लीटनर इन कठिनाइयों का वर्णन करते हुए पञ्जाब में रावलपिण्डी ज़िले की प्राप्त संख्याओं का उल्लेख करते हैं:— "इस जिले में जनता से जो संख्या प्रात हुई थी उसके अनुसार १७१ स्कूल और ३,७०० विद्यार्थी थे। ज़िले के अफ़सरों की दी हुई पहली संख्या १८७८-७९ की ३०२ स्कूलों और ५,४५४ विद्यार्थियों की थी। पर जब मिस्टर मिलर ने इस कार्य्य को अपने हाथ में लिया तो ६४१ स्कूलों और ७,१४५ विद्यार्थियों का होना सिद्ध हुआ।" लीटनर-कृत 'पञ्जाब में प्राचीन भारतीय शिक्षा का इतिहास, पृष्ठ, १४।
  2. उसी पुस्तक से, पृष्ट १६९।