प्राचीन प्रारम्भिक शिक्षा-पद्धति का भारतीय ग्राम्य पञ्चायतों[१] के साथ इतना अधिक सम्बन्ध था कि यहां ग्राम्य पञ्चायतों के सम्बन्ध में एक पैराग्राफ उद्धृत कर देना अनुचित न होगा[२]।
लडलो के मत के अनुसार हिन्दू धर्म की एक बड़ी विशेषता यह है कि—"इस धर्म में सर्वत्र नगर-समितियाँ ग्राम-पञ्चायतों के रूप में मिलती हैं।... इनके अनुसार स्थानिक भूमि का सारा प्रबन्ध इस प्रकार होता है मानो एक व्यक्ति अपनी निजी सम्पत्ति का कर रहा हो......किसी स्थानविशेष पर अधिकार रखनेवाले लोग केवल मनुष्य-समूह के ही रूप में नहीं रहते बल्कि एक सुसंगठित संस्था के रूप में निवास करते हैं।
ऐसे व्यक्तियों के रहते हुए भी कि जिन्हें हम पूर्ण अधिकारी कह सकते हैं, उस संस्था को उस भूमि-भाग पर कुछ विशेष अधिकार प्राप्त रहते हैं और उसके ख़ास कर्मचारी होते हैं.......ग्राम्य जीवन के लिए जो बातें आवश्यक समझी जाती हैं उनके प्रत्येक के पृथक् पृथक् कार्य्यकर्ता होते हैं। पहला मुखिया होता है जिसका सरकार के साथ सम्पूर्ण गाँव के प्रतिनिधि के रूप में सम्बन्ध रहता है। दूसरा पटवारी होता है जो सम्पूर्ण भूमि का, अधिकारियों का और उनके अधिकार के समय आदि का लेखा रखता है तथा व्यक्तियों का हिसाब, पट्टा और पत्र आदि लिखता है। इसके बाद चौकीदार होता है, वह केवल पहरा देने वाला नौकर नहीं होता बल्कि उसी गाँव का एक सदस्य होता है और उसका कार्य वंशपरम्परागत होता है। बदले में उसे भूमि का एक निश्चित भाग प्राप्त रहता है। इन कर्म्मचारियों में एक पुरोहित भी होता है जो प्रायः ब्राह्मण होता है। नियमानुसार पुरोहित का कार्य भी 'वंशपरम्परागत होता है और इस कार्य के लिए उसे भी भूमि का एक भाग प्राप्त रहता'। (एक अध्यापक भी होता है) जो प्रायः ज्योतिषी का भी काम करता है। (कहीं कहीं ज्योतिषी का पद पृथक् ही होता है) यह न सोचिए कि यह पद अपना प्राचीन महत्त्व नहीं रखता......(प्रत्येक हिन्दू ग्राम में) जहाँ कुछ भी प्राचीन श्रादर्श शेष रह गया है (साधारण ज्ञान वितरण का यंत्न होता रहता है) जाति से बहिष्कृत लोगों को छोड़ कर—