सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:दुखी भारत.pdf/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७५
अमरप्रकाश


प्रतिदिन के साधारण काय्यों में भी गम्भीरता पाई जाती थी। ग्रामीण समाजों से, जिन्होंने केवल सफ़ाई आदि के कार्य्य ही नहीं वरन माल और जजी के शासन-कार्य्य भी जनता के हाथों में सौंप रखे थे, समाज के भिन्न भिन्न अङ्गों में शिक्षा-प्रचार में अत्यन्त सहायता पहुँचती थी। इस प्राचीन शिक्षण-पद्धति का ही फल है कि इस समय भी देश में अगणित पारशालाएँ चटशालाएँ और तोल फैले हुए हैं और जो, उनकी वर्तमान अवस्था कितनी ही गिरी क्यों न हो, सहस्त्रों वर्ष की उदासीनता, घृणा और अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच में भी जीवित रह कर यह सिद्ध करते हैं कि जन्म के समय उनमें कितनी प्रबल क्षमता रही होगी। वर्तमान समय में धार्मिक आज्ञा निर्बल होती जा रही है, ग्रामीण समाज क़रीब क़रीब नष्ट हो गया है, दस्तकारी सर्वनाश के कगार पर पहुँच गई है, राज्य-कर के अत्यन्त भारी बोझ से देश दबा जा रहा है और एक विदेशी भाषा कचहरी और व्यापार की भाषा बन गई है। इस प्रकार इस प्रचलित शिक्षा के स्वाभाविक प्रोत्साहनों के निर्बल हो जाने से इसकी उन्नति केवल एक उदार सरकार पर, जो जनता को विदेशी शासन से पहुँची हानियों का बदला देने की इच्छुक हो, निर्भर रह गई है। ब्रिटिश-शासन की देख-रेख में जब तक राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति फिर से नहीं सुधर जाती तब तक कृत्रिम उपायों से इसे जितना प्रोत्साहन मिल सके, मिलना चाहिए।[]

मिस मेयो का द्वेषपूर्ण आक्षेप कि भारतवासियों को मूर्खता और निरक्षरता प्रिय है एक ऐसा असत्य है जिसको कोई आधार नहीं मिल सकता। डाक्टर लीटनर की रिपोर्ट में हम देखते हैं कि[]:—

"मैं इस बात का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकता कि हिन्दू-मुसलमान और सिक्ख-समाजों के सब वर्गों में शिक्षा की अत्यन्त चाह और उसके प्रति महान् आदर है। और इस 'सूर्य्य के देश' ने अपने बेटों को आवश्यकता से कहीं अधिक आश्चर्य्यजनक प्रतिभा दे रखी है....। पूर्व का देश जैसे तीन हज़ार वर्ष पहले मानसिक संयम, संकृति, और शान्ति का घर था वैसे ही अब भी है। वहाँ की प्रतिभा जैसी व्यापक है, प्रकाशन और मिलने जुलने के साधनों के अभाव से वैसे ही उसकी उपेक्षा भी हुई है। हमारे पास ये सुविधाएँ न हों तो जिन पूर्वी जातियों का हम तिरस्कार करते हैं उनसे बहुत पीछे रह जायँ। अपने हज़ारों मूर्ख भाइयों के बीच से एक चतुर योरप-निवासी अपने विचारों और अविष्कारों को चारों


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४२
  2. उसी पुस्तक से, पृष्ठ ८५