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अमरप्रकाश


घरों पर जो सहस्रों स्कूल लगते थे तो अलग ही हैं।) और प्रति स्कूल में कम से कम दस छात्रों की उपस्थिति मान लें तो हमें पञ्जाब-प्रान्त में ३,३३,५५० छात्रों के पढ़ने का पता चलता है जहाँ अब सरकारी या इमदादी स्कूलों में मिलाकर केवल १,१३,००० छात्र पढ़ते हैं। और प्राचीन ढङ्ग की पाठशालाओं में और भी कम। (क्योंकि पिछली मनुष्य-गणना के अनुसार सब प्रकार की शिक्षा पानेवालों की संख्या केवल १,५७,६२३ है।) रणजीतसिंह के समय में शिक्षा की क्या अवस्था थी इसका पता पिछले अध्याय में दी गई सिक्ख लेखकों की संख्या से चल सकता है। दूसरे प्रकार के प्रसिद्ध विद्वानों की सूची और भी लम्बी है। स्वयं शासन-सम्बन्धी और बन्दोबस्त की रिपोर्टों से भी (जहाँ तक कि मुझे देखने दिया गया है) हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि सम्पूर्ण प्रान्त में पढ़ने पढ़ाने का भाव विद्यमान था।"

ब्रिटिश-शासकों ने उपयोगी और प्राचीन शिक्षण पद्धति को निर्मूल करके और उसके स्थान पर कोई नवीन पद्धति प्रचलित करने की परवाह न करके भारतवर्ष के प्रति एक महान् अपराध किया है। डाक्टर लीटनर पञ्जाब से प्राचीन प्रथा के उठने पर विचार करते हुए अन्य बातों के साथ निम्नलिखित परिणामों पर पहुँचे हैं[१]:—

(१) पञ्जाब में ब्रिटिश-शासन से पहले आरम्भिक शिक्षा और किसी किसी अवस्था में उच्च कोटि की पूर्वीय साहित्यिक और भाषा-सम्बन्धी शिक्षा का भी जैसा विस्तार था वैसा लीटनर के समय में नहीं रह गया था।

(२) पञ्जाब के शासन-विभाग को यह आज्ञा दी गई थी कि वह माफ़ी के मूल्यवान् भूमि-भागों पर, चाहे वे पाठशालाओं और धार्मिक स्थानों के ही लिए क्यों न हों, कर लगा दे। इस प्रकार यहाँ भी बङ्गाल की भांति माफ़ी की भूमि वापस ली जाने लगी।

(३) इसके परिणाम-स्वरूप प्राचीन पाठशालाओं में से धीरे धीरे बहुतों की भूमि छिन गई।

(४) बार बार चेतावनी पाने पर भी पञ्जाब के शिक्षा-विभाग की प्रवृत्ति प्राचीन पाठशालाओं के विनाश की ही ओर अधिक थी, साथ ही इसने अपनी ख़ास आरम्भिक पाठशालाओं की ओर भी कुछ ध्यान नहीं दिया।


  1. वही पुस्तक, पृष्ठ १४८