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दुर्गेशनन्दिनी।



प्रायः बाहर रहा करता था। शशिशेखर की आंख उसपर पड़ी थोड़ेही दिनों में उसका पैर भर आया।

अग्नि और पाप दोनों छिप नहीं सक्ते यह बात शशिशेखर के बाप के कान तक पहुंची। उन्होंने कुलकलंक के छुड़ाने के लिये उस स्त्री के स्वामी को तुरन्त बुलवा भेजा और अपने पुत्र का उचित शासन किया। इस अपमान के कारण शशिशेखर उदास होकर घर से चल दिये और काशी में पहुंचे। वहां एक महान पण्डित का नाम सुन उन्हीं के पास पढ़ने लगे। वेद में अच्छे थे ज्योतिष में भी बहुत बढ़े, अध्यापक का भी मन पढ़ाने में लगने लगा।

शशिशेखर एक शूद्री के गृह के समीप रहते थे उसको एक जवान कन्या थी वह प्रायः भट्टाचार्य महाराज की सेवा में रहा करती थी उस को इनसे गर्भ रह गया और मेरा जन्म हुआ। सुनतेही गुरु ने कहा 'शिष्य! मेरे यहां पापियों का काम नहीं है। जाओ अब काशी में मुंह न दिखलाना।

शशिशेखर लज्जा के मारे काशी से चल दिये और मेरी माता को भी घर से निकाल दिया।

बेचारी मुझको लेकर एक मड़ैया में रहने लगी और मजूरी करके पेट पालती थी। कोई बात नहीं पूछता था। पिता का भी कुछ समाचार नहीं मिला। कई वर्ष के अनन्तर एक धनी पठान बंगदेश से दिल्ली जाते समय काशी में उतरा था रात के कारण कहीं टिकने को स्थान नहीं मिलता था। उसके सङ्ग में उसकी स्त्री और एक छोटासा बालक भी था। उन्होंने हमारी मां की मड़ैया के समीप आकर निवेदन करके रात के टिकने की आशा मांगी। पठान के सङ्ग एक सेवक भी था। माता मेरी दरिद्र तो थी पर दयालु भी थी। धन की लालच से