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द्वितीय खण्ड।


वह त्रिभुवनमोहिनी मूर्ति कैसे भूलेगा? अब तो जब तक जीव है इस मल मूत्र अस्थि मांस संयुक्त शरीर को वहन करनाही पड़ेगा और तब तक उस जीवेश्वरी का ध्यान भी न छूटेगा।

इस प्रकार (कारुणिक उत्कट चिन्ता करते २ राजपुत्र की स्थिरता और बुद्धि मन्द होने लगी और स्मरण शक्ति भी घटने लगी) सारी रात सिर में हाथ लगाये बैठें थे। घुमरा आने लगा और आँख खोलने की इच्छा नहीं होती थी।

एक अवस्था में देर तक रहने से शरीर में वेदना होने लगी और ज्वर सा चढ़ आया। खिड़की के पास जा कर खड़े हुए।

शीतल वायु मस्तक में लगी। अंधेरी रात बदली छायी हुई थी तारागण मन्द २ चमकते थे और दूर के वृक्ष अन्धकार के कारण एक में मिले हुए देख पड़ते थे निकटस्थ वृक्षों पर जुगनू चमक रहे थे और सम्मुखस्थ तड़ाग में पाश्ववर्ती लता वृक्ष की छाया स्पष्ट देख पड़ती थी।

मन्दसमीर के स्पर्श से शरीर शीतल हुआ खिड़की पर दोनों हाथ रखकर मस्तक नवाकर खड़े हुए। बहुत देर तक नींद तो आयी न थी कुछ मुर्च्छा आ चली कि फिर वही ध्यान आ गया। आशा छोड़ने में बड़ा क्लेश होता है। अस्त्राघात से बड़ा दुःख होता है किन्तु उससे जो घाव होता है उसमें उतना क्लेश नहीं होता, वह तो स्थायी न हो जाता है। वही दशा राजकुमार की हुई। अंधकारमय उड़गण हीन आकाश की ओर देखने लगे। उसका प्रतिबिम्बि अपने हृदय में देख सोचने लगे प्राचीन बातें सब स्मरण होने लगीं, बाल्यावस्था, युवामद सब का ध्यान हुआ और क्रमशः अन्यमन होने लगे। शरीर की शीतलता और बढ़ने लगी और कुछ नींद भी आने लगी।