उसमान ने कहा 'सत्य है किन्तु यह कब सम्भव है कि एक की हानि हो और एक की न हो मान्दारणगढ़ के जीतने वाले कुछ बलहीन नहीं है।
जगतसिंह ने कुछ मुसकिरा कर कहा 'वे तो बड़े कुशल हैं।'
उसमान ने कहा 'जो हो आत्मश्लाघा हमारा काम नहीं है।'
रात दिन मोगलराज से विवाद करके पठानों का उडि़स्सा में रहना नहीं हो सक्ता। किन्तु वे उनके आधीन भी नहीं हो सक्ते। आप मेरी बातों को और भांति न समझिये। आप तो राजनीति जानते हैं, देखिये दिल्ली से उड़िस्सा कितनी दूर है। दिल्लीश्वर ने जो मानसिंह के पराक्रम से पठानों पर इस बार जय पायी तो यह जयध्वजा कब तक खड़ी रहेगी? महाराज मानसिंह सेना लेकर पलट जायेंगे और उड़िस्सा से दिल्लीश्वर का राज भी लौट जायगा। पहले भी तो अकबर ने इस देश को जीता था किन्तु कितने दिन अपने आधीन रक्खा? अब भी वैसाही होगा। बहुत होगा फिर सेना आवेगी और जय होगी, फिर पठान स्वाधीन हो जायेंगे। वे बंगाली तो नहीं हैं जो आधीन हो जायें, फिर राजपूत और पठानों के रुधिर बहाने से क्या लाभ है?'
जगतसिंह ने कहा 'तुम क्या चाहते हो।'
उसमान ने कहा मैं 'कुछ नहीं कहता। मेरे स्वामी सन्धि करना चाहते हैं।'
ज॰। 'कैसी सन्धि?'
उ॰। दोनों पक्षवालों को कुछ २ दबना चाहिये। नवाब कतलूखां ने अपने बाहुबल से बंग देश के जिस प्रदेश को जीता है वे उसको छोड़ देते हैं अकबरशाह भी उडि़स्सा छोड़ कर सेना लेकर चले जायें और फिर कभी आक्रमण न करें।