पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/५४

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द्वितीय खण्ड।


मैं कहाँ जाऊँगी? अब पिता के घर में कौन होगा? और रोने लगी। क्या राजकुमार कुशल से हैं। और कहाँ हैं? क्या करते हैं? क्या वे भी बंदी है? और धाड़ मार रोने लगी 'हे अधम प्राण! राजपुत्र तेरे लिये बंदी हुए और तू अब भी नहीं निकलता! अब मैं क्या करूँ? वे क्या कारागार में होंगे? वह कारागार कैसा होगा? क्या वहाँ और भी कोई जा सकता है वहाँ बैठे वे क्या सोचते होंगे? क्या इस पापिन का भी कभी स्मरण करते होंगे? हाँ करते क्यों न होंगे। हाँ! मैंही इस विपति की कारण हूँ। न जाने मुझको अपने मनमें कितनी गाली देते होंगे। हैं, मैं क्या कह रही हूं? क्या वे कभी किसी को गाली देते हैं? हाँ इसको भूल गए होंगे। हमको यवनगृहनिवासिनी समझ कर घृणा करते होंगे। किन्तु इसमें मेरा क्या दोष है? जैसे वे पराधीन हैं वैसे मैं भी हूँ। मैं उनको समझा सकती हूँ और यदि न समझेंगे तो उनके सामने कलेजा काढ़ कर रख दूँगी। प्राचीन काल में अग्निद्वारा परीक्षा होती थी अब कलिकाल में नहीं होती। यदि वे ऐसे न मानेंगे तो मैं अग्नि में खड़ी होकर अपनी सतीत्व सिद्ध कर दिखाऊँगी। हाँ! उस त्रिभुवन मनमोहन का दर्शन कब मिलेगा? वे कैसे बंधन से छूटेंगे? मैं अकेली छूट कर क्या करूँगी? यह अंगूठी मेरी मां ने कहाँ पाई? क्या इसके द्वारा उनका उद्धार नहीं हो सकता? मेरे बुलाने को कौन आने वाला है? क्या वह उनके छुड़ाने का कोई यत्न नहीं कर सकता? हे प्राणनाथ एक बेर तो आ-मिलो!

एक बेर तो इस दग्ध हृदय को शीतल करों।

तिलोत्तमा इस प्रकार विलाप कर रही थी कि एक परिचारिका आई।