पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/५८

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द्वितीय खण्ड।


 

चौदहवां परिच्छेद।
मोह।

जगतसिंह ने झुक कर देखा कि वह बेसुध होगई और अपने वस्त्र से वायु करने लगे इस पर भी उसको चेत नहीं हुआ तब पहरे वाले को बुला कर बोले 'देखो इस स्त्री को मूर्च्छा आगई, इसके सङ्ग कौन आया है? उससे कहो कि इसका यत्न करे।'

उसने उत्तर दिया 'इसके सङ्ग तो मैंही आया हूँ।' राजपुत्र ने आश्चर्य से कहा 'तुम।'

प्रहरी ने कहा 'और कोई नहीं है।'

"फिर क्या होगा? किसी दासी को बुलाओ?"

प्रहरी चला फिर राजपुत्र ने उसको पुकार कर कहा 'आज रात को कौन अपना आनंद छोड़ कर इसकी सुधि लेने आवेगा?'

प्रहरी ने कहा 'यह भी सच है। और पहरे वाले किसको भीतर आने देंगे। मैं दूसरे किसी को कारागार में नहीं बुला सकता।'

राजपुत्र ने कहा 'फिर क्या करोगे? इस का एक उपाय है, तुम चट पट किसी दासी के हाथ नवाब की बेटी के पास कहला भेजो।'

प्रहरी जल्दी से दौड़ा। राजकुमार अपनी बुद्धि के अनुसार तिलोत्तमा की शुश्रूषा करने लगे। उस समय उनके मन में क्या क्या तरङ्ग उठीं होंगी? अकेले तिलोत्तमा को लिये कारागार में व्यग्र बैठें सोचते थे कि 'यदि आयेशा के पास सम्बाद न पहुँचा अथवा वह न आ सकी तो क्या होगा?'

इतने में तिलोत्तमा को कुछ २ चेत होने लगा। उसी समय जगतसिंह ने देखा कि प्राहरी के सङ्ग दो स्त्री आती है।