पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६१
द्वितीय खण्ड।



हमारा बन्दी होना इसका कारण नहीं हो सत्ता क्योंकि तुम्हारे पिता के कारागार में हमार ऐसे अनेक हैं।'

आयेशा आंचलसे आंसू पोछने लगी और फिर बोली 'राजपुत्र अब मैं न रोऊंगी।'

राजपुत्र अपने प्रश्न का उत्तर न पाने से उदास हुए और दोनों थोड़ी देर सिर नीचा किये चुपचाप बैठे रहे।

इतने में एक और मनुष्य आया पर किसी ने उसको देखा नहीं,वह आकर उनके समीप खड़ा हुआ तब भी किसी ने नहीं देखा। थोड़ी देर चुप चाप खड़ा रहा फिर क्रोध स बोला'आयेशा ! खूब'।

दोनों ने उसकी ओर देखकर उसमान को पहिचाना !

उसमान अंगूठी वाले प्रहरी से सब बातें सुनकर यहां आया था। उसको देख राजपुत्र को आयेशा के निमित्त भय हुआ कि उसमान और कतलूखां उसका तिरस्कार करेंगे। क्योंकि उसमान के क्रोध मय बचन से यही पाया गया। आयेशा ने उसमान के मर्म बचन को भली भांति समझा और उसका मुंह लाल हो गया परन्तु अधीर नहीं हुई।बोली'क्या खूब।'

उसमान ने पूर्ववत भाव से कहा 'नवाबपुत्री को अकेली रात के समय कारागार में बन्दी के साथ बात करना अच्छी बाल है?रात को बन्दी के निमित्त कारागार में मानाही उत्तम है ?'

आयेशा से यह बात सही नहीं गयी। उसमान के मुंह की ओर देखकर बोली। ऐसी बातें उसके मुंह से उसने कभी सुनी न थीं। 'मेरी इच्छा थी मैं रात को बन्दी से बात करने को माई। मैं अच्छा करती हूं चा दुरा तुमको मेरे कामों से मतलब ?'