पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/८१

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द्वितीय खण्ड।



में भली भांति सोच के स्थिर किया है। स्त्रियों काहृदय स्वाभाविक दुर्दम है अतएव अधिक साहस उचित नहीं।

मुझको एक बेर और तुम्हारे दर्शन की लालमा है। यदि तुम यहां पर अपना विवाह करो तो मुझको सम्बाददेना मैं अपने सामने विवाह कराऊंगी और आप की पत्नी के लिये कुछ अलंकार रख छोड़ा है यदि समय मिला तो अपने हाथ से पहिराऊंगी, एक निवेदन और है। जब मेरे मरने का समाचार तुम्हारे पास पहुंचे तो एक बेर इस देश में आना और तुम्हारे नामांकित संदूक में जो कुछ रक्खा है उसको अनुग्रह पूर्वक ग्रहण करना। पिता के स्नेह के कारण कन्या होकर जो द्रव्य मने पाया है धन हीन देश में वह लाख करोड़ के तुल्य है। यदि राजवंश को इसके लेने में कुछ दोष न हो तो आकर इसका अधिकार लेना।

दान पत्र इसी सन्दूक में मिलेगी।

और क्या लिखूं? लिखने को तो बहुत जी चाहता है किन्तु क्या प्रयोजन? जगदीश्वर लक्ष्मी पति गदाधर सर्वदा तुमको सुखी रक्खे। मेरा ध्यान करके कभी दुखी न होना।

जगतसिंह पत्र पढ़कर रोने लगे और कुछ देर उसको हाथ में लिये इधर उधर टहलते रहे फिर झट एक टुकड़ा कागज ले निम्न लिखित पत्र लिख दूत के हाथ दिया।

'आयेशा' तू स्त्री रत्न है! मेरे जान विधाता की यही इच्छा है कि जगत में सब दुखीही रहें। मैंने तुम्हारी किसी बात का उत्तर नहीं लिखा। तुम्हारे पत्र से मे अत्यन्त कातर हो गया हूं। इतना निश्चय करक जानना कि मैं तुमको सर्वदा अपनी सहोदर बहिन की तरह समझता रहूंगा।'

दूत पर लेकर आयेशा के पास फिरगया