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बनारस


बनारस कितना प्राचीन शहर है, ठीक ठीक नहीं मालूम। ईसा के १२०० वर्ष पहले तक उसके अस्तित्व का पता चलता है। शाक्यमुनि ने, ईसा के ६०० वर्ष पहले, जिस समय पहले पहल अपने चेलों को बौद्ध धर्म का उपदेश दिया, उस समय बनारस एक विशाल नगर था। बनारस से तीन मील उत्तर एक जगह सारनाथ है। उसे लोग धमेख कहते। वहीं बुद्ध ने पहले पहल धर्मोपदेश किया था। किसी किसीका मत है कि बनारस पहले वहीं बसा हुआ था। बनारस के आस पास की जमीन को देखने से जान पड़ता है कि उसने कई दफ़े अपना स्थान परिवर्तन किया है। जिस जगह को लोग आजकल सारनाथ कहते हैं, उसका नाम बौद्धों की पुस्तकों में "मृगदाव" है। सम्भव है, किसी समय, वहां जङ्गल रहा हो और उसमें हिरन रहते रहे हों।

होएनसङ्ग के समय में बनारस

सातवें शतक में चीन का प्रसिद्ध बौद्ध संन्यासी होएनसङ्ग हिन्दुस्तान में आया। वह पञ्जाब की तरफ़ से घूमता हुआ बनारस पहुंचा। वह अपने प्रवास-वर्णन में लिखता है कि उस समय बनारस-राज्य का घेरा ८०० मील था। ख़ास शहर चार मील लम्बा और एक मील चौड़ा था। सब लोग ख़ुश थे। अमीरों के यहां अनन्त धनदौलत थी। सब लोग सौम्य स्वभाव के और विद्याव्यसनी थे। हिन्दू बहुत थे, बौद्ध कम। प्रान्तभर में ३० संघाराम थे; उनमें कोई ३००० के क़रीब बौद्ध पुजारी थे। हिन्दुओं के मन्दिरों की संख्या एक सौ