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दृश्य-देशन
में वर्णन किये गये तपोवन का तत्काल स्मरण हा आया। वहां कण्व के आश्रम के समीप इरिणों को लक्ष्य कर के महाराज दुष्यन्त को बाण सन्धान करते देख, आश्रम के तपस्वियों ने कैसे कोमल वचनों से राजा को रोका है:-
न खलु न खलु बाणः सन्निपात्योऽयमस्मिन्-
मृदुनि मृगशरीरे तूलगशाविवाग्निः ।।
क बत हरिणकानां जीवितं चाति लोलं ।
क्व च निशितनिपाता वभ्रसाराः शरास्ते ।।
परन्तु यहां इस उपवन में हरिणों को लक्ष्य बनाना तो दूर रहा,. कन्धे पर रक्खी हुई बन्दूक भी शायद उन्हें देखने को न मिलती हो। इसीसे यहां के हिरन इतने निडर हो गये हैं कि प्रायः शहर के भीतर तक चले आते हैं और स्वछन्द घूमा करते हैं।
[अप्रेल १९०८]