पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१००३

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दि इतना सुन कर दारोगा कुछ सोच में पड गया। मालूम होता था कि उसे गिरिजाकुमार की बातों पर विश्वास हो रहा है मगर फिर भी बात को टाला चाहता है। दारोगा-मगर ताज्जुब है कि मनोरमा ने मरे साथ ऐसा बुरा बर्ताव क्यों किया और उसे जो कुछ कहना था वह स्वय मुझने क्यों नहीं कहा? गिरिजा-मैं इस बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूँ? दारोगा-अगर , तुम्हार कह मुतायिक चीठी लिख कर न दूँ तो? पिरिजा-तब इस कोडे से आपकी खबर ली जायगी और जिस तरह हो सकेगा आपसे चीठी लिखाई जायगी। आप खुद समझ सकते है कि यहाँ आपका कोई मददगार नहीं पहुंच सकता। दारोगा-क्या तुमको या मनोरमा को इस बात का कुछ भी खयाल नहीं है कि चीठी लिख कर भी छूट जाने के बाद मैं क्या कर सकता हूँ ! गिरिजा-अब ये सब यातें तो आप उन्हीं मे पूछियेगा मुझे जवाब देने की कोई जरूरत नहीं मैं सिर्फ उनके हुक्म की तामील करना जानता हू! बताइए आप जल्दी चीठी लिख देते हैं या नहीं, मै ज्यादे दर तक इन्तजार नहीं कर सकता। दारोगा-(झुझला कर और यह समझ कर कि यह मुझ पर हाथ न उठावेगा कवल धमकाता है) अवे मैं चीठी किस बात का लिख दूँ । व्यर्थ की वकवक लगा रक्खी है । इतना सुनत ही गिरिजाकुमार ने कोड जमाने शुरू किए पाँच ही सात कोडे खाकर दारोगा बिलबिला उठा और हाथ जोड़ कर वाला "बस बस माफ करो, जो कुछ कहो मै लिख देने को तैयार हू गिरिजाकुमार ने झट कलम,दायात और कागज अपने बटुए में से निकाल कर दारोगा के सामने रख दिया और उसके हाथ की रस्सी ढीली कर दी। दारोगा ने उसकी इच्छानुसार चीठी लिख दी। मीठी अपने कब्जे में कर लेने के वाद उसन दारागा की तलाशी ली कमर में खेजर और कुछ अशर्फियों निकलीं वह भी लेने के बाद दारोगा के हाथ पैर खोल दिए और बता दिया कि फलानी जगह आपके रथ और घोडे हैं जाइए कस कसा कर अपने घर का रास्ता लीजिए। इतना कह गिरिजाकुमार चला गया और फिर दारोगा को मालूम न हुआ कि वह कहाँ गया और क्या हुआ। बारहवां बयान इतना किस्सा कह कर दलीपशाह ने कुछ दम लिया और फिर इस तरह कहना शुरु किया गिरिजाकुमार ने अपना काम करके दारोगा का पीछा छोड नहीं दिया बल्कि उसे यह जानने का शौक पैदा हुआ कि देखें अब दारागा साहब क्या करते हैं, जमानिया की तरफ विदा हाते हैं या पुन मनोरमा के घर जाते है या अगर मनोरमा के घर जाते हैं तो देखना चाहिए कि किस ढग की बातें हाती है और कैसी रगत निकलती है। यद्यपि दारोगा का चित्त द्विविधा में पड़ा हुआ था परन्तु उसे इस बात का कुछ कुछ विश्वास जरूर हो गया था कि मेरे साथ ऐसा खाटा बर्ताव मनोरमा ही ने किया है दूसरे किसी को क्या मालूम कि मुझसे उससे किस समय क्या बातें हुई। मगर साथ हो इसके वह इस बात को भी जरूर सोचता था कि मनोरमा ने एसा क्यों किया? मैं तो कभी उसकी वात से किसी तरह इनकार नहीं करता था। जो कुछ उसने कहा उस बात की इजाजत तुरन्त दे दी अगर वह चीटी लिख देन के लिए कहती तो धीठी भी लिख देता फिर उसन ऐसा क्यों किया? इत्यादि। खैर जो कुछ हो दारागा साहर अपन हाथ से रथ जोत कर सवार हुए और मनोरमा के पास न जाकर सीधे जमानिया की तरफ रवाना हो गये। यह देख कर गिरिजाकुमार ने उस समय उनका पीछा छोड दिया और मेरे पास चला आया। जो कुछ मामला हुआ था खुलासा बयान करन बाद दारोगा साहब की लिखी हुई चीठी दी और फिर मुझसे विदा हाकर जमानिया की तुरफ चला गया । मुझे यह जान कर एक हौल सा पैदा हो गया कि बेचार गोपालसिह की जान मुफ्त में जाया चाहती है। मैं सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए जिसमें गोपालसिह की जान बचे। एक दिन और रात तो इसी सोच में पड़ा रह गया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्ददेव से मिल कर यह सब हाल कहना चाहिए। दूसरा दिन मुझे घर का इन्तजाम करने में लग गया क्योंकि दारोगा की दुश्मनी के खयाल से मुझे घर की हिफाजत का पूरा-पूरा इन्तजाम करके ही तब बाहर जाना जरूरी था अस्तु मैने अपनी स्त्री और बच्चे को गुप्त रीति से अपने ससुराल अर्थात् स्त्री के माँ बाप के घर पहुचा दिया और उन लोगों को जो कुछ समझाना था सो भी समझा दिया इसके बाद घर का इन्तजाम करके इन्द्रदेव की तरफ रवाना हुआ। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २३