पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१०४

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Cayet पर मुझे इस बात की खबर लगी कि मूतनाथ की स्त्री बहुत बीमार है। मेरे एक शागिर्द ने आकर यह सदेशा दिया और साथ ही इसके यह भी कहा कि आपकी स्त्री उसे देखने के लिए जाने की आज्ञा मागती है। भूतनाथ की स्त्री शान्ता वडी नेक और स्वभाव की बहुत अच्छी है। मैं भी उर्स बहिन की तरह मानता था इसलिए 'उसकी बीमारी का हाल सुन कर मुझे तरद हुआ और मैंने अपनी स्त्री को उसके पास जाने की आज्ञा दे दी तथा उसकी हिफाजत का पूरा पूरा इन्तजाम भी कर लिया। इसके कई दिन बाद खबर लगी कि मेरी स्त्री शान्ता को लेकर अपने घर आ गई। आठ दस दिन बीत जाने पर भी न तो जमानिया से कुछ खबर आई न गिरिजाकुमार ही लौटा। हॉरियासत की तरफ से एक चीठी न्योते की जरूर आई थी जिसके जवाब में इन्द्रदेव ने लिख दिया कि गोपालसिह से और मुझसे दोस्ती थी सा वह तो चल वसे अब उनकी क्रिया में अपनी आँखों से देखना पसन्द नहीं करता। मेरी इच्छा तो हुई कि गिरिजाकुमार का पता लगाने के लिए में खुद जाऊं मगर इन्द्रदेव ने कहा कि नहीं दो चार दिन और राह देख लो, कहीं ऐसा न हो कि तुम उसकी खोज में जाओ और वह यहा आ जाय। अस्तु मैने भी ऐसा ही किया। बारहवें दिन गिरिजाकुमार हम लोगों के पास आ पहुचा। उसके साथ अर्जुनसिह मी थे जो हमलोगों की मण्डली में एक अच्छे ऐयार गिने जाते थे मगर भूतनाथ से और इनसे खूब ही चखाचखी चली आती थी। (महाराज और जीतसिह की तरफ देख कर ) आपने सुना ही होगा कि इन्होंने एक दिन भूतनाथ को धोखा देकर कूएँ में ढकेल दिया था और उसके बटुए में से कई चीजें निकाल ली थी। जीत-हा मालूम हे मगर इस बात का पता नहीं लगा कि अर्जुन ने भूतनाथ के बटुए में से क्या निकाला था। इतना कह कर जीतसिंह ने भूतनाथ की तरफ देखा। भूत-(महाराज की तरफ देख कर ) मेने जिस दिन अपना किस्सा सरकार को सुनाया था उस दिन अर्ज किया था कि जब वह कागज का मुट्ठा मेरे पास से चोरी गया तो मुझे बडा ही तरबुद हुआ और उसके बहुत दिनों के बाद राजा गोपालसिह के मरने की खबर उडी इत्यादि। यह वही कागज का मुट्ठा था जो अर्जुनसिंह ने मेरे बटुए में से निकाल लिया था तथा इसके साथ और भी कई कागज था असल बात यह है कि उन चीठियों की नकल के मैंने दो मुठे तैयार । किये थे एक तो हिफाजत के लिए अपने मकान में रख छोडा था और दूसरा मुठा समय पर काम लेने के लिए हरदम - अपने बटुए में रखता था। मुझे गुमान था कि अर्जुनसिह ने जो मुट्ठा ले लिया था उसी से मुझे नुकसान पहुचा मगर अब मालूम हुआ कि ऐसा नही हुआ अर्जुनसिह ने न तो वह किसी को दिया और न उससे मुझे कुछ नुकसान पहुचा। हाल में जो दूसरा मुट्ठा जैपाल ने मेरे घर से चुरवा लिया था उसी ने तमाम बखेड़ा मचाया। जीत-ठीक है (दलीपशाह की तरफ देख के) अच्छा तब क्या हुआ दलीपशाह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया दलीप-गिरिजाकुमार और अर्जुनसिह में एक तरह की नातेदारी भी है परन्तु इसका खयाल न करके ये दोनों आपुस में दोस्ती का बर्ताव रखते थे। खैर उस समय इन दोनों के आ जाने से हमलोगों को खुशी हुई और फिर इस तरह की बातें होने लगी मै-गिरिजाकुमार तुमने तो बहुत दिन लगा दिए । गिरिजा-जी हा मुझे तो और भी कई दिन लग जाते मगर इत्तिफाक से अर्जुनसिह से मुलाकात हो गई और इनकी मदद से मेरा काम बहुत जल्द हो गया। ? मैं-खेर यह बताओ कि तुमन किन किन बातों का पता लगाया और मुझसे विदा होकर तुम दारोगा के पीछे कहाँ तक गए? गिरिजा-जैपाल को साथ लिए हुए दारागा सीधे मनोरमा के मकान पर चला गया। उस समय मनोरमा वहा नथी वह दारोगा के आन के तीन पहर याद रात के समय अपने मकान पर पहुची। मै भी छिप कर किसी न किसी तरह उस मकान में दाखिल हो गया। रात का दारोगा और मनारमा में खूब हुज्जत हुई मगर अन्त में मनोरमा ने उसे विश्वास दिला दिया कि राजा गोपालसिह का मारन के विषय में उससे जबर्दस्ती पुर्जा लिखा लेने वाला मरा आदमी न था बल्कि वह

  • देखिय इक्कीसवाँ भाग दूसरा बयान।

देवकीनन्दन खत्री समग्र १००४