पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१०५

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कमरे में बैठे हुए देखते हैं जिसमें से रनवीरसिह यकायक गायब हो गए थे। राजा-(चारो तरफ देख के) अहा आज यहाँ एक सच्चे मित्रसे मिलने की अभिलाषा मुझे कितना प्रसन्न कर रही है सो मैं ही जानता हू 1 (दीवान से) क्यों सुमेरसिह, अब कितनी रात बाकी होगी? दीवान-(हाथ जोड के) जी यही कोई डेढ पहर रात होगी। राजा-अब समय निकट ही है। वीरसेन क्या रनवीरसिहजी से इसी कमरे में मुलाकात होगी? राजा-हॉ वह अकस्मात इसी कमरे में दिखाई देगा। नवीरसेन-सो कैसे? राजा-(मुस्कुरा कर) वैसे ही जैसे यहाँ से गायब हो गया था । कुसुमकुमारी सिर नीचा किये तरह तरह की बातें सोच रही थी ! उसे यकायक राजा नारायणदत्त के इस ढग से यहाँ आने पर बडा ही आश्चर्य था और उसे यह भी विश्वास हो गया था कि आज यहाँ कोई नया गुल खिलने वाला है। राजा साहब की यातें उसे और भी आश्चर्य में डाल रही थीं और वह ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि हे ईश्वर जो कुछ अद्भुत और आश्चर्य जनक घटना तुझे दिखलानी हो शीघ्र दिखा !! राजा (दीवान से) इस जगह तीन चार साधुओं के बैठने का सामान शीघ्र करना होगा। दीवान-जो आज्ञा 1(बीरसेन की तरफ देखकर) आप किसी को आज्ञा दे दें। राजा-नहीं नहीं वीरसेन को यहाँ बैठा रहने दीजिये आप स्वयं बाहर जाकर इसका प्रबन्ध कीजिये कवल इतना ही नहीं एक प्रबन्ध आपको और भी करना होगा । दीवान-(खडे होकर) आज्ञा? राजा-हम लोगों के सिवाय कोई दूसरा आदमी इस कमरे में न आने पावे और यदि कोई वाहर हो तो इतनी दूर हो कि हमलोगों की बातें न सुन सके। दीवान साहब कमरे के बाहर चले गए और थोड़ी ही देर में सब बन्दोवस्त जैसा कि राजा साहब ने कहा था हो गया। हम ऊपर लिख आये है कि इस कमरे में एक तरफ सगमर्मर की दो बडी मूरतें थीं उनमें से एक तो कुसुमकुमारी के पिता कुबेरसिह की मूरत थी और दूसरी मूरत रनबीरसिह के पिता इन्द्रनाथ की थी इस समय सब काई उसी मूरत के सामने बैठे हुए थे। यकायक दोनों मूरतें हिलने लगीं जिसे देख कुसुमकुमारी और बीरसेन को वडा ही ताज्जुब हुआ। तीन ही चार सायत के बाद वे दोनों मूरतें गज गज भर अपने चारो तरफ की छत लिये हुए जमीन के अन्दर चली गई और उस के बदले में उसी गडहे के अन्दर से पॉच आदमी बारी बारी से इस तरह निकलते हुए दिखाई दिये जैसे कोई धीरे धीरे सीढी चढ कर ऊपर आ रहा हो। उन पाँचों आदमियों में से दो आदमियों को तो दीवान साहब बीरसेन और कुसुमकुमारी भी पहिचान गई मगर वाकी के तीन आदमियों को जो फकीरी सूरत में थे सिवाय राजा नारायणदत्त के और किसी ने भी नहीं पहिचाना । जिस समय वे पांचों आदमी छत के नीचे से ऊपर आये उसी समय राजा नारायणदत्त, दीवान साहब और वीरसेन उठ खडे हुए। बेचारी कुसुमकुमारी सहम कर एक तरफ हट गई। राजा नारायणदत्त दौड कर उन तीनों साधुओं में से एक साधु के पैर पर गिर पड़े और ऑसुओं की धारा से उसके चरण की धूलि धोने लगे। उस साधु ने मुहब्बत के साथ राजा साहब की पीठ पर हाथ फेरा और उठा कर कहा अपने सच्चे प्रेमी मित्र से मिलो " यह कह कर दूसरे साधु की तरफ जो उनके बगल ही में था इशारा किया और राजा साहब झपट कर उसके गले के साथ चिमट गए ! उस साधु ने भी बडे प्रेम से राजा साहब को गले लगा लिया और दोनों की आखों से आंसुओं की धारा बह चली। रनवीरसिह आगे बढकर दीवान साहब स साहवसलामत करने बाद वीरसेन से मिल और तय मोहब्बत भरी एक गहरी निगाह कुसुमकुमारी पर डाली उधर उसने भी अपने धडकते हुए कलेजे को शान्ति दकर प्रेम पूरित दृष्टि से रनवीर को देखा और लज्जा से आँखें नीची कर ली। इस समय का कौतुक देख कर दीवान साहब और वीरसन तो हैरान थे ही मगर कुसुमकुमारी के दिल का क्या हाल था सो हमारे पाठक स्वय अनुमान कर सकते है। अपने मित्र साधु से जो वास्तव में रनबीर के पिता थे मिलने के बाद राजा नारायणदत्त तीसरे साधु से गले गले मिल और तय रनवीर के पिता कुसुम कुमारी की तरफ बढे । राजा नारायणदत्त ने कुसुम से कहा 'यह रनवीरसिह के पिता है इनके पैरों पर गिरो। कुसुमकुमारी रनबीरसिह के पिता क पैरों पर गिर पड़ी जिन्होंने बड़े प्रेम से उठाकर उसका सर छाती से लगाया कुसुम कुमारी ११०७