पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१०६

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दि और कहा वटी कुसुम आज का दिन हम लोगों को देखना नसीब होगा इसका ता गुमान भी न था, हा इतना जानत थ कि हमलोगों की वास्तविक प्रसन्नता में कोई बाधा नहीं डाल सकता, अच्छा वेठा और हमलागों का जीवनचरित्र सुना।' इतना कहकर इन्द्रनाथ (रनवीर के पिता) दीवानसाहब ओर वीरसन की तरफ घूम और कुशलभगल पूछने लगे दीवान साहब और बीरसेन भी इन्द्रनाथ के पैरों पर गिरे और दीवान साहब ने कहा मुझ पूरा विश्वास था कि जो कुछ आपन कहा है वहीं हागा पर तु आज के दिन की खबर न थी और न यही जानता था कि आज का दिन हमलोगों के लिय इतनी वडी खुशी का होगा। हम ऊपर लिख आय है कि छत के नीच से सीढ़िया चढकर पाय आदी निकल जिनमें से चार आदमियों का हाल तो हभ लिख चुक है मगर पाँच आदमी का परिचय अभी नहीं दिया गया वह पांचवा आदमी वही सार घेतसिह था जिसका बयान पहिले आ चुका है जो बहुत स फौजी सिपाहियों का लकर रनवीरसिह की खोज में उस पहाड़ी के ऊपर गया था जिस पर कुसुम मारी और रनवीरसिह की मूरत बनी हुई थी। यह नक सर्दार पुरानी उम्र का था और दीवान साहब की तरह बहुत स भेदों का जानता था कुसुम कुमारी के पिता इस दोस्ती की निगाह सदखते थे और इस पर बहुत भरोसा रखते थे कुसुम को इसने गोद में खिलाया या इसलिये कुसुम इसस किसी तरह का पर्दा नहीं करती थी। इन्द्रनाथ इत्यादि क साथ सर्दार चतसिह का भी अद्भुत ढग स उस कमर में पहुंचते देय दीवान साहब वीरसन और कुसुमकुमारी को वडा हो ताज्जुब हुआ पर यह विचार कर कुछ न पूछा कि थाडी ही देर में बहुत से मद खुला पाले है ताज्जुब नहीं कि उन्हीं के साथ सर्दार चेतसिंह का हाल भी मालूम हो जाय। थोडी देर तक आरचय से सब कोई एक दूसरे को देखते रहे और जब राजा साहब की इच्छानुसार सच कोई बैठ गये तो उस नये साधु ने जिसके पैर पर राजा साहब गिरे थे कहा यह सुशी जो किसी कारणवश बहुत दिनों तक लाप हो गई थी आज यकायक विचित्र रूप से तुम लोगों के सामने आकर खड़ी हुई है यह खुशी क्यों और कहा चली गई थी ओर आज यकायक कैसे आ पहुची तथा अव क्या अवस्था होगी इसका पूरा पूरा हाल जिसक जानने के लिये तुम यचैन हा रहे हागराजा इन्दनाथ और राजा कुवरसिह का हाल सुननं ही से तुम लोगों का मालूम हो जायगा और यह हाल इस समय हमारा यह शिष्य (दूसरे साधु की तरफ इशारा करक) तुमलोगों से कहेगा परन्तु अपनी जुबान से कुसुमकुमारी की प्रसन्नता के लिये या उसके दिल का खुटका शीघ्र ही दूर करने के लिय इतना में कह दता हू कि दुनिया में मित्रता का नमूना दिखान वाले दाना भित्र इन्दनाथ और कुवेरसिह भरे चेले हैं और आज इस जगह ये दोनों ही ग्त्रि उपस्थित है तथा (राजा नारायणदत्त की तरफ इशारा करके) यह नारायणदत्त वास्तव में कुसुमकुमारी के पिता कुबेरसिह हैं। गुरु महाराज के मुह से इतनी बात निकलत ही कुसुमकुमारी चीख उठी और~~ पिता पिता मेरे प्यार पिता! इतने दिनों तक मुझ अभागिनी को छोडकर तुम दूर क्यों रहे? कहती हुई राजा नारायणदत्त के पैरों पर गिर पड़ी और राने लगी। राजा नारायणदत्त की आखें भी डबडया आई और उन्होंन बडे प्यार से कुसुमकुमारी को उठा कर कहा 'वटी कुसुम यद्यपि बहुत दिनों तक में तुझसे दूर रहा परन्तु तू खूब जानती है कि मैं तेरी तरफ से बेफिक नहीं रहा और वरावर तरी हिफाजत करता रहा। इतन दिनों तक मै दूर क्यों रहा ? इसका हाल हमारे गुरु भाई अभी अभी तुम लोगों से कहेंगे, शान्त हाकर बैठ और हम दोनों मित्रों का विचित्र हाल सुन। इतना कह कर राजा साहब चुप हो गए और सब कोई अपने अपने ठिकाने बैठ गए। सों का जी राजा साहब के गुरुभाई की तरफ लगा हुआ था जिम्की जुबानी दोनों राजाओं का विचित्र हाल सुनन के लिये सब बेचैन हो रहे थे। अस्तु राजा साहय के गुरुभाई ने यों कहना प्रारम्भ किया - राजा इन्द्रनाथ और राजा कुवेरसिह बड़े प्रेमी और पूरे मित्र होने के कारण प्राय एक साथ रहा करते थे दोनों इन्हीं (गुरुवावाजी की तरफ इशारा करके) गुरु महाराज के चेले है जिनका चेला में है। दोनों मित्रों को ज्योतिष पडने का हद्द से ज्यादे शौक था और गुरु महाराज ने भी बडे प्रेम से दोनों को ज्योतिष के ग्रन्थ पढाय और ज्योतिष की गूढ बातें बताई। उन दिनों इन दोनों मित्रों के पिता जीते थे और तेजगढ़ तथा विहार का राज्य करते थे। एक दिन इन दोनों मित्रों ने एकान्त में बैठ कर अपने अपने पिता के विषय में ज्योतिष द्वारा भविष्यत फल तैयार करना आरम्भ किया और जब दोनों को यह मालूम हुआ कि इन दोनों ही के पिता आज के चालीसवें दिन एक साथ सग्राम में मारे जायेगे तो इन्हें बड़ा ही आश्चर्य और रज हुआ। उन दिनों न तो किसी से लडाई लगी हुई थी और न उन दोनों राजाओं का कोई दुश्मन ही था । अतएव इस बात से दोनों को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी किस लडाई में दोनों के पिता मारे जायेंगे। उस समय इन दोनों मित्रों की अवस्था लगभग बीस वर्ष की होगी। जब इन दोनों को अपने अपने पिता का हाल हर तरह से मालूम हो गया तो दोनों ने इस बात को छिपा रक्या और इस उद्योग में लगे कि चालीस दिन की जगह पचास दिन तक न तो किसी से लडाई होने पाये और न उनके पिता मारे 1 2 वेवकीनन्दन खत्री समग्र ११०६