पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१०८

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पाँच डाकू ऐस भी मिले जिनकी जान तो नहीं निकली थी मगर जीने लायक भी न थे इन्हीं की जुवानी मालूम हुआ कि उस गिरोह का सार अनगढसिह नामी उस डाकू का बड़ा भाई था जिस चौदह वर्ष की अवस्था में प्राणदण्ड दिया गया था। यह खबर जब इन्दनाथ और कुवरसिह को लगी तो उन्हें वडा ही रज हुआ यहा तक कि राज्य करने की अभिलाषा दोनों के दिल से जाती रही। दोनों ने साचा कि जय प्रारब्ध का लिखा हुआ मिट ही नहीं सकता और जो कुछ हाना है सो हागा तो व्यर्थ की किचकिच में फंसे रहने स क्या मतलब? दो वर्ष तक तो इन्द्रनाथ किसी तरह से अपने पिता की गद्दी पर बैठे रहे इसके बाद अपने दीवान को राज्य सौप कर फकीर हो गए, उस समय रनवीरसिह की उम्र पाँच वर्ष की थी ओर कुसुमकुमारी की अढाई वर्ष की। राजा इन्द्रनाथ अपनी स्त्री और लडके को लेकर काशी चले गए और उसी जगह श्रीविश्वनाथ जी की आराधना में दिन विताने लगे। राजा इन्दनाथ के राज्य छोडन का केवल एक वही सबब न था बल्कि उन्हें कई आपुस वालों ने कई दफे जहर देकर मार डालने का उद्योग भी किया था मगर ईश्वर की कृपा से जान बच गई थी इसलिये उन्हें कुछ पहिले से भी राज्य से घृणा हो रही थी। राजा कुवेरसिह ने भी अपने मित्र का साथ दना चाहा मगर इन्द्रनाथ ने कसम देकर उन्हें ऐसा करन से रोका और कहा कि कुछ दिन और ठहर जाओ उसके बाद जा चाहना सो करना आखिर राजा कुबेरसिह ने उनका कहा मान लिया मगर राज्य का काम दिली के साथ करन लगे और महीनदो महीने पर अपने मित्र से अवश्य मिलते रहे। कुछ दिन बाद जब एक रोज दोनों मित्र इकट्ठे हुए अर्थात् जब कुर्वरसिह काशी में जाकर इन्दनाथ से मिले ता वात ही बात में पुन ज्योतिषविद्या की चर्चा होने लगी, दोनों मित्रों की इच्छा हुई कि एक दफे पुन उद्याग करके अपने नसीव को देखना चाहिये और मालूम करना चाहिये कि अब आगे क्या हाने वाला है। आखिर एसा ही हुआ तीन दिन के उर्धाग में दोनों ने कई वर्ष का फल तैयार कर लिया जिससे मालूम हुआ कि इन्द्रनाथ और कुवेरसिह दोनों साधु हो जायँग रनवीरसिह और कुसुमकुमारी दोनों के लिए राज-सुख वदा नहीं है, कुसुम को कोई राजा जबर्दस्ती व्याह ले जायगा । इसके अतिरिक्त और भी कई बातें मालूम हुई। राजा इन्दनाथ ने कुवेरसिंह से कहा कि भाई पहिली दफं ता हमलोग धोखे में रह गए परन्तु अवकी दफे देखना चाहिये कि उद्योग की सहायता से हम लाग अपने प्रारब्ध के साथ क्या कर सकते हैं हम तो अब फकीर हो ही चुके है मगर तुम कदापि फकीर न होना यद्यपि राजा बने रहने की इच्छा न भी रहे तो टेक निवाहने के लिये अपने देश के मालिक बने ही रहना । मालूम हुआ है कि कुसुम को कोई राजा जबर्दस्ती व्याह ले जायगा, सो तुम अभी ही कुसुम की शादी छिपे छिपे रनवीर के साथ यहाँ ही कर दो और दो तीन आदमियों को यह भेद वता दो जिममें समय पर काम आये और कोई गैर आदमी इस भेद को जानने न पावे। अपने घर में एक चित्रशाला बनाचाओ जो इन भेदों को समय पड़ने पर खोल दे उस घर में हमेशा ताला बन्द रह और उसकी ताली किसी योग्य पुरुष के सुपुर्द रहे. इसके बाद तुम अन्तर्ध्यान हो जाओ और फिर सूरत बदल कर हमारी राजगद्दी पर बैठो और देखो कि प्रारब्ध और उद्योग में कैसी निपटती है हमारी राजगद्दी पर बैठे रहने से तुम कुसुम और रनवीर की हिफाजत भी कर सकोगे, इत्यादि। कुबेरसिह अपने मित्र की बात किसी तरह टाल नहीं सकते थे मगर एक खुटके ने उन्हें तरदुद में डाल दिया और सिर झुका कर सोचने लगे। जय कुछ देर हो गई तो इन्द्रनाथ ने पूछा आप क्या सोच रहे है ? इसके जवाब में कुवेरसिह ने कहा कि मे यह सोचता हूं कि आपने जो कुछ कहा उसे मैं जी जान से कर सकता है परन्तु विधार इस बात का है कि जय मै लड़की की शादी रनवीर के साथ कर दूंगा तो आपके राज्य का मालिक मैं कैसे बन सकूँगा? आपकी आमदनी का एक पैसा भी मेरे काम आने से में लोक परलोक दानों में से कहीं का न रहूगा, और जब अपना राज्य अपनी लडकी को दे दूंगा तो उसमें से भी एक पैसा लेन लायक न रहूगा, ऐसी अवस्था में आपकी आज्ञानुसार काम कर के अपना जीवन निर्वाह में क्या कर कर सकूँगा ? साथ ही इसके काई काम ऐसा भी न हाना चाहिये जिसमें आपकी राजगद्दी चलाने के समय में लोगों को मेरे असल हाल का पता लग जाय ।' कुवेरसिह की बात सुन कर राजा इन्दनाथ ने कहा कि- आपका सोचना बहुत ठीक है मगर उसके लिये एक तीव हो सकती है अर्थात् कुशुम को राज्य दे देने और उसकी शादी करने के पहिले ही आप अपने राज्य का कोई मोजा या परगना राज्य से अलग करके किसी ऐसे आदमी के सुपुर्द कर दीजिये जिस पर आप पूरा विश्वास कर सकते हो और जिस आप इस भेद में भी शरीक करना पसन्द करते हो बस वह आदमी आपके अलग किये हुए परगने की आमदनी । किसी ढग से आपको दिया करेगा और उसी से आप अपना काम चलाया करेंगे। राजा कुवरसिह को यह यात बहुत पसन्द आई और वह गुप्तरीति से इसका बन्दोबस्त करने लगे। (दीवार की तरफ -- देवकीनन्दन खत्री समग्र ११६