पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/११०

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LE लोगों को होगी और राजकर्मचारी लोग इकट्ठे हाकर तहकीकात करेंगे तो हमारा भेद खुल जायगा और अगर हम रनवीर को लेकर कहीं चल जायें तो अपनी स्त्री की लाश का क्या करें जो वैचारी इस समय डाकुओं के हाथ से मारी गई है, (कुछ रुककर) अहा ईश्वर की भी विचित्र महिमा है। इन्द्रनाथ इस फेर में पड़े हुए सोच ही रहे थे कि में जा पहुंचा और सय हाल मालूम करने के बाद उनका साथ देने के लिये तैयार हो गया। अपनी स्त्री की लाश कम्बल में बाँध कर इन्द्रनाथ ने पीठ पर लादी और रनवीर को मेने गोद में उठा लिया, जसवन्त की उगली पकड़ ली और उसी समय वहां से निकल कर बाहर हुए । तरनतारनी भगवती जान्हवी के तट पर पहुंच कर और डोमड़ों को बहुत कुछ देकर रनबीर के मा की दाहक्रिया की गई और दो ही घण्टे में उस काम से भी छुट्टी पाकर हम लाग काशी क बाहर हो गए. फिर न मालूम पीछे क्या हुआ और लोगों ने क्या सोचा { रनबीर अपनी मा के मरने से बड़ा उदास और दुखी हुआ, यद्यपि उस समय यह बालक ही था मगर घडी घडी अपने पिता स यही कहता था कि मेरी मा को जिसन मारा उसका पता बता दो मैं अपने हाथ से उसका सर काटूंगा'! आखिर लाचार होकर इन्द्रनाथ ने उसे समझा दिया कि तेरी मां को किसी दूसरे ने नहीं मारा बल्कि यह अपने हाथ से अपना गला काट के मर गई। इतना कहकर बाबाजी कुछ दर के लिए चुप हो गए क्योंकि यह हाल कहते कहत उनका जी उमड़ आया था और रनवीर तथा कुसुमकुमारी की आँखों से भी आसू की धारा यह रही थी। थोड़ी देर बाद बाबाजी ने फिर कहना शुरू किया- 'काशी से बाहर होकर हमलाग तीन दिन तक घरावर चले ही गए और विन्ध्य की एक पहाड़ी पर जाकर विश्राम किया । इन्द्रनाथ ने एक खोह में डरा डाला और मुझे कुबेरसिह का बुलाने के लिये भेजा। जव कुर्धरसिह आये तो रनवीर तथा जसवन्त को समझा बुझाकर उनके हवाल किया और आप अकेले रहने लगा उस दिन से फिर रनबीर को अपने बाप का कुछ हाल मालूम न हुआ। इस जगह हम यह कहना पसन्द नहीं करते कि रनधीरमिह किस तरह अपनी राजधानी में रहा करते थे क्योंकि कुसुम का छोड के और सभी को उसका हाल मालूम हे तथापि रनवीर को पुन जताने के लिये इतना अवश्य कहेंग फि राजा नारायणदत्त (कुवेरसिह) रनवीर का बरावर कहा करते थे कि जसवन्त अच्छे खानदान का शुद्धलड़का नहीं है अतएव तुम इस पर भरासा न रक्खा करो और इसका साथ छोड़ दो। थोडे दिन तक उस पहाड़ी में ईश्वराधन करने के बाद इन्द्रनाथ वहाँ से उठ कर अपने गुरु के पास गए और साल भर तक उनके पास रहने बाद फिर अलग हुए क्योकि उस जगह (जहाँ गुरूजी रहा करते थे) डाकुओं की आमदरफ्त शुरू हो गई थी और डाकुओं को उनका पता लग जाने का भय था अस्तु इन्द्रनाथ वहाँ से रवामा होकर मथुरापुरी की तरफ चले गए, फिर मुद्दत तक किसी को मालूम न हुआ कि राजा इन्दनाथ कहाँ गए क्या हुए और उन पर क्या मुसीबत आई तथापि राजा कुवेरसिह और गुरुमहाराज उनकी खोज में लगे रहे। इधर लगभग तीन वर्ष के हुआ होगा कि राजा कुवेरसिह के एक जासूस ने आकर यह खबर दी फि राजा इन्दनाथ को बालेसिह ने गिरफ्तार कर के डाकुओं के हवाले कर दिया । इतना सुनते ही कुवेरसिह गुरुमहाराज के पास गए और सय हाल उनसे कहा और इसके बाद उसका पता लगा कर कैद से छुडाने की फिक्र होने लगी। यह वात कई आदमियों को मालूम थी कि-बालेर डाकुओं के किसी गिरोह का गुप्त रीति से साथी है और डाकुओं की बदौलत वह अपन को बड़ा ताकतवर समझता है और वास्तव में बात भी ऐसी ही थी। डाकुओं की बदौलत बालेसिह वात की बात में अपने फोजी ताकत को तो बढा ही लेता था मगर वह खुद भी बड़ा ही काइयाँ और शैतान था। स्वय राजा कुबेरसिह ने उससे रज होकर कई दफे उस पर चढाई की थी मगर वह काबू में न आया, ईश्वर रनवीरसिह पर सदैव प्रसन्न रहे जिसने अपनी बहादुरी से चालेसिह को बेकाम कर दिया । जिन दिनों गुरु महाराज को यह मालूम हुआ कि इन्दनाथ को वालेसिह ने डाकुओं के हाथ में फसा दिया उन दिनों गुरु महाराज की सेवा में एक नोजवान बहादुर आया करता था जो बडा ही नेक और रहमदिल था। उसका बाप जो बालेसिह का नौकर था भर चुका था केवल उसकी एक माँ थी जो यालेसिह के यहॉ रहा करती थी वह नौजवान लडका भी जिसका नाम रामसिह था अपनी माँ के साथ बालेसिह के ही यहॉ रहा करता था परन्तु यद्यपि वह यालेसिह के यहाँ रहता था और उसका नमक खाता था मगर वालेसिह की चाल चलन उसे पसन्द न थी और इसलिये वह गुरु महाराज से कहा करता था कि कोई ऐसी तीव बताइये जिससे में अमीर हो जाऊँ और बालेसिह की मुझे कुछ परवाह न रहे जिसके जवाब में गुरु महाराज यही कहा करते थे कि उद्योग करो जो चाहते हो सो हो जायगा, उद्योगी मनुष्य के आगे कोई यात दुर्लभ नहीं है। जब गुरुमहाराज का इन्द्रनाथ का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने इन्द्रनाथ का ठीक-ठीक पता लगाने का काम उसी नौजवान रामसिह के सुपुर्द किया और कहा कि उद्योग करने का यही मौका है यदि तेरे उद्योग से देवकीनन्दन खत्री समग्र १११२