पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/११४

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or में आय थे। मालूम हुआ कि वह छत का छोटा सा टुकडा जजीरों के सहारे टगा हुआ रहता है और नीचे कमरे में जजीरों को बँचने और ढीला करने के लिये चर्खियों लगी हुई है। इसी कमरे के आगे सर्दार चेतसिह के रहने का कमरा था। तैंतीसवां बयान इस विचित्र ढग से अपने पिता से मिलन का जैसा आनन्द रनबीरसिह और कुसुमकुमारी को हुआ इसका लिखना कठिन है । आश्चर्य नहीं कि हमारे पाठकों को भी दोनों राजर्षि राजाओं के उद्योग और प्रारब्ध का हाल पढ कर कुछ आनन्द मिला हो। अब इस किस्से की समाप्ति में थाडा सा हाल लिखना और बाकी रह गया। वह यह है कि घण्टे भर बाद मन्मथसिह के घर की औरतें ऊपर बुलाई गई और कुसुमकुमारी बडे प्रेम से उनसे मिली मगर इन औरतों को रनवीरसिह के अतिरिक्त दोनों राजाओं और गुरु महाराज का परिचय नहीं दिया गया और वे सब इसी समय अच्छी तरह से अपने घर पहुचा देने के लिये सदार चेतसिह के हवाले की गई उन्हें केवल इतना ही मालूम हुआ कि राजा रनबीरसिह ने हम लोगों को छुडाया। रनबीरसिह ने बहुत उद्योग किया कि उनके पिता इन्दनाथ अब उनके पास ही रहें मगर उन्होंने न माना और गुरू महाराज ने भी कहा कि अब ये राज्य करने और तुम्हारे पास रहने लायक न रहे क्योंकि ये सन्यास ले चुके है शहर में रहने से कोई न कोई काम इनसे ऐसा हो ही जायगा जिससे यह पातकी होग आर धेर्म म बाधा, पड़ेगी मगर तुम्हें इन सब बातों का ख्याल न कर के अपना राज्य करना ही होगा और इन्द्रनाथ को हम इसी समय यहाँ से ले जायेंगे। लाचार रोते ओर सिसकते हुए रनबीर को उनकी आज्ञा माननी ही पड़ी और उसी समय अपने चेले बाबाजी और इन्द्रनाथ को लेकर गुरु महाराज जिस राह से आये थे उसी राह से रवाना हो गए। दूसरे दिन राजा नारायणदत्त चोरदर्वाजे के पहरेदार चञ्चलसिह को प्राणदण्ड की आज्ञा देन के बाद रनवीरसिह की इच्छानुसार तेजगढ की राजधानी रामसिह के सुपुर्द कर के कुसुमकुमारी रनवीरसिह दीवान साहव बीरसेन सार चेतसिह और उनक लडके बाला को साथ लेकर बिहार चले गये। इसके महीन भर के बाद वे रनबीरसिह को राजतिलक देकर अपने मित्र इन्द्रनाथ के अनुगामी और पक्षपाती होकर जगल की तरफ पधार गए और फिर उन दोनों मित्रों का हाल किसी को मालूम न हुआ और कुसुमकुमारी तथा रनवीरसिह को यह दुख सहना ही पडा। साल भर के बाद दीवान साहब को मालूम हुआ कि बालेसिह क लश्कर से भागी हुई कालिन्दी को उन्हीं के दो नौकरों ने नदी पार उतारने के बहाने से डोगी पर बढा कर गिरफ्तार कर लिया था और जब उसे घसीट कर दीवान साहब क पास लाने लगे तो कालिन्दी ने आत्महत्या कर ली थी। मगर इस खबर से दीवान साहब को किसी तरह का रजन हुआ और वह बहुत दिनों तक जीते रह कर कुसुमकुमारी और रनबीरसिह के सुख भोगन का आनन्द लेते रहे।

समाप्त देवकीनन्दन खत्री समग्र १११६