पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१२३

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साथ छप्पर के अन्दर ले गया। नरेन्द्रसिह ने अन्दर लगभग पन्द्रह बीस मल्लाहों को बैठे पाया जिनमें पाँच छ तो बड़ी भयानक सूरत के थे। उनकी काली काली सूरत और बडी बडी आखें देखने से ही डर मालूम होता था। एक तरफ कुछ थोडी सी कुल्हाडिया गडॉसे नेजे और तलवारों का ढेर लगा हुआ था और दस बीस गठरियाँ भी ऐसी पड़ी थीं कि जो देखने स किसी सौदागर की मालूम होती थीं। इन चीजों को देख नरेन्द्रसिह के जी में कई तरह के खुटके पैदा हुए और इस नाव को किराये करने का मन न किया। मल्लाहों की तरफ देख कर बोले. “हम लोग सिर्फ चार आदमी है। नाव बहुत बड़ी है और सफर भी बहुत दूर तक का है। यह नाव मेरे काम की नहीं है। बिहारी ने कहा 'एक नाव बहुत छोटी और पटी हुई हमारे पास और भी है। अगर उस पर आप सफर करें तो सिर्फ एक ही मल्लाह आपको पटने तक पहुंचा सकेगा क्योंकि वह नाव चलने में बहुत सुवुक है। अगर जरा सा आप यहाँ ठहरें तो उस नाव को यहाँ लाकर दिखला दूं। नरन्द - वह नाव कहा पर है ? बिहारी- पास ही है बस वहीं जहाँ इस नदी का मोड घूमा है। नरेन्द्रसिह को इस बात का शक तो जरूर हुआ कि ये लोग डाकू है मगर बिहारी की यह बात सुनकर कि एक नाव और भी है और एक ही आदमी उस पर पटने पहुचा देगा सोचने लगे कि इसमें हमारा कोई हर्ज नहीं अगर एक आदमी डाक भी होगा तो हमारा कुछ न कर सकेगा। बिहारी से कहा, 'जाओ उस नाव को ले आओ मगर जल्द आना। विहारी ने अपने साथियों की ओर देखकर कहा- तुम लोग भी आओ तो उस नाव को जल्दी खैच लावें ।" अपने कुछ साथियों को लेकर बिहारी नाव के नीचे उतरा और थोडी दूर तक दरिया के किनारे किनारे जाकर पास के जगल में गायब हो गया। बिहारी को गये घण्ट भर से ज्यादा हो गया नरेन्द्रसिह बैठे बैठ घबडा उठे और दूसरे मल्लाहों से जो उस नाव में थे बोले "तुम्हारा बिहारी नाव लेकर अभी तक न आया हमारे साथी घवडा रहे होंगे हम तो जाते हैं। इसके जवाब में एक मल्लाह ने कहा, चढाव की तरफ नाव लाने में देर लगती है आप जरा और ठहर जायं आता ही होगा। - घण्टे भर तक नरेन्द्रसिह और ठहरे मगर नाव न आई। घबडा उठे । मोहिनी की तरफ जी लगा हुआ था। मल्लाहों की यात पर ध्यान न दिया । नाव से नीचे उतर आये और उस तरफ चले जहाँ अपने साथियों को छोड़ा था। आते वक्त भी उतनी ही देर लगी यहा तक कि दोपहर हो गया जब उस ठिकाने पहुंचे। मगर अफसोस बेचारी मोहिनी और उसकी बहिन गुलाब को वहाँ न पाया और न अपने लड़कपन के दोस्त बहादुरसिह को ही वहा देखा जिसे भग घोटते छोड गय थे हॉ किश्ती ज्यों की त्यों वहाँ ही बधी थी। पाँचवॉ बयान मोहिनी गुलाब और अपने दोस्त बहादुरसिह को न देखने से नरेन्द्रसिह को कितना ताज्जुव अफसोस तरवुद फिक्र गम और सदमा हुआ यह वही जानते होंगे। घबड़ा कर चारों तरफ देखने लगे जब किसी को न देखा तो बोले 'हाय मै उसे अकेला क्यों छाड गया मेरे सिर कैसी कम्बख्ती सवार थी जो दूसरी नाव किराये करने गया !हाय जिस किश्ती ने बेचारी मोहिनी और गुलाब की जान बचाई और जिस किश्ती पर बैठ कर हम लोग हंसते खेलते यहॉ तक पहुंचे, उसी को छोडना चाहा । परमेश्वर ने इसी की सजा दी। हाय कम्बख्त दिल ! उस वक्त धूप की सूझी । बेचारी मोहिनी धूप का कुछ खयाल न करके इसी किश्ती पर सफर करने को तैयार थी मगर तुझे गर्मी सताने लगी | अब उसकी जुदाई की आग में न जाने कब तक तुझे जलना पडेगा। हाय वह कहाँ चली गई क्या मौका पाकर भाग तो नहीं गई । नहीं नही. उसे छिपकर भागने की जरूरत ही क्या थी | मै तो उसे उसके घर तक पहुंचा देन ही वाला था, मैंने उसका क्या विगाडा था कि छिप कर भागती ! फिर वहादुरसिंह कहा चला गया? वह तो मेरा साथ छोड़ने वाला न था क्या कोई दुश्मन पहुँचा जिसके सबब से बेचारी मोहिनी और गुलाब को फिर दुख भोगना पड़ा ? कहीं उन नाव वाले मल्लाहों' की तो बदमाशी नहीं । सूरत से वे लोग बडे दुष्ट और डाकू मालूम पडते थे। वे किश्ती लेने नहीं गये घूम फिर धोखा दे जरूर यहा आये और तीनों को ले भागे क्योंकि पहिले ही उन लोगों को मुझसे मालूम हो चुका था कि हमारे साथ औरतें है और उन्होंने पूछा भी था कि कहाँ है ? हाय ! मैंने क्यों इशारे से बता दिया कि इस तरफ है | जरूर उन्हीं लोगों की शैतानी है। खैर अब मोहिनी ही नहीं तो अव मै जी कर क्या करूँगा? इससे तो अव यही बेहतर है कि उन लोगों से लड़कर ही अपनी । जान दे दूं, और कुछ नहीं तो दो चार की जान जरूर ही ले लूगा ।" यह सोचते सोचते हमार वहादुर नरेन्द्रसिह को बेहिसाव गुस्सा चढ आया बडी बडी आखें सुर्ख हो गई, बदन कॉपने लगा घडी घडी तलवार के कब्जे पर हाथ जान लगा। थोडी देर तक इसी हालत में खर्ड रह कर कुछ सोचते रहे, इसके बाद तेजी के साथ उस नाव की तरफ चले। पहिले दफे नरेन्द्रसिह जब उस किश्ती की तरफ गये थे तब इनको रास्ते में बहुत देर हो गई थी मगर अब की दफे घटे ही भर में ये उस नाव के पास जा पहुंचे। अवकी मलये नाव के ऊपर जाने के लिय काठ की सीढी ही नहीं लगी थी मगर बहादुर नरेन्द्रसिह ने इसका कुछ नरेन्द्र मोहिनी "११२५