पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१२८

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कुछ देर तक दाना चुप रही, इसके बाद उस चन्द्रमुखी ने अपनी सखी की तरफ मुह करके कहा--- सखी तारा, अब मैं क्या करू? तारा - प्यारी रम्भा तुम तो नाहक जिद्द करती हो 1 अगर अपने पिता का कहना मान ला तो कोई हर्ज नहीं है। रम्भा - नहीं बहिन ऐसा न होगा। धर्म ता विगडेहीगा ऊपर से इसमें बदनामी भी बडी होगी। दुनिया क्या कहेगी कि रम्भा की शादी नरेद्रसिह से लगी तिलक चढ चुका था बारात निकल चुकी थी भगर नरन्द्रसिह नव्याह न किया वारात में से भाग गये, तब रम्भा की दूसरी शादी की गई। क्या मैदा शादी वाली न कहलाऊंगी? तारा -- सुनत है नरन्द्र तुम्हार लायक था भी नहीं, बड़ा ही बदसूरत और एक टाग से लगडा भी था फिर क्या उसके लिये जिद्द करती हो? रम्भा - सखी जो हो लगडा लूला अन्धा कोढी चाहे जैसा/भी हो आखिर तो मेरा पति हा चुका है ! अब मै दूसरी जगह शादी न करने की । पण्डित लोग लाख कसम खाये कि इसमें कोई दोष नहीं मगर मैं एक न सुनूगी। ज्याद जिद्द करेग ता बाप माँ भाई इत्यादि सभी को छाड कहीं चली जाऊँगी या अपनी जान ही दे दूंगी। तारा- सखी सच पूछा तो बात सही है जिसके हुए उसके हुए मगर अफसास तो यह है कि नरेन्दसिह कहत है कि में जन्म भर शादी हीन करूगा चाह जो हो। रम्भा- अगर उनकी ऐसी ही मर्जी है तो क्या हर्ज है में भी उनके नाम पर जागिन बन जन्म गाउगी। मगर मुझे निश्चय है कि अगर मरा सामना नरेन्द्रसिह से हो जायेगा और में हाथ वाध अपने को उनक पैरों में डाल दूगी तो वह मुझको कभी न त्यागेग। मगर क्या करूँ ? कहा दूदू ? 4 ता उन्हें पहिचानती तक नहीं । तारा-बहिन अब मुझ निश्चय हा गया कि तुम अपनी जिद न छोडागी अपने धर्म को न विगाडागी। खैर तो फिर मैं भी वाप मा को छोड तुम्हार दुख सुख की साथी बनूंगी क्योंकि अब यहा रहना ठीक नहीं है। रम्भा -- ( रोकर ) प्यारी सखी तुम मेरे साथ क्यों अपनी जिन्दगी विगाडती हो? तार- ( राकर और हाथ जाड कर ) यहिन क्या तुम समझती हो कि तुमसे अलग हो कर में सुखी रहूँगी? रम्भा - नहीं मैता खैर तुम्हारी जैसी मर्जी ॥ तारा - में, कभी लेरा साथ नहीं छाड सकती। रम्भा -- में तो आज इर शहर का छाड दना चाहती हूँ। तारा -- अच्छा है ता चला फिर, मै भी तैयार बैठी हूँ। रम्भा - भला यह ता बताओ मुझे किस भेष में यहाँ से निकलना चाहिए? तार-इन जेवरों और कपड़ों को उतार दना चाहिए जो हम लोग पहिरे हुए है और मैली धोती और एक चादर ले यहाँ सचल देना चाहिए। रम्भा - मेरी समझ में एक एक पोशाक मर्दानी मी साथ रख लना मुनासिव होगा। तारा -- जरूर ऐसा करना चाहिए कुछ दूर जा कर हम लोग मर्दाने भेष में सफर करेंगे। रम्भा - तो अब देर करना मुनासिव नहीं है चलो फिर । तारा-मगर मेरी समझ में आज चलना ठीक नहीं होगा। रम्भा -क्यों? तारा- ईश्वर की कृपा से अगर नरेन्द्रसिह कहीं मिले भी तो हम लोग उनको कैसे पहिचानेगे ? अगर न पहिचान सके और वह मिल कर भी फिर जुदा हो गये तो बिलकुल मेहनत बर्बाद हो जायगी और दौडधूप में ही जिन्दगी भीत जायेगी। रम्भा - फिर क्या करना चाहिए? तारा- तुम्हारी माँ के पास नरेन्दसिह की तस्वीर है, किसी तरह उसे ले लेना चाहिए। रम्भा - ऐसा । मगर मुझे कुछ मालूम नहीं कि वह तस्वीर कद आई और कहाँ है। तारा-- तुम्हारी शादी पक्की होने के पहिले ही वह तस्वीर तुम्हारे पिता लाये थे जो अभी तक मों के पास है। रम्भा - तो उसे किस तरह लोगी? तारा-कल जिस तरह बनेगा उस तस्वीर को मैं जरूर गायब करूँगी. हॉ एक काम और भी करना चाहिए। रम्भा- वह क्या । तारा-एक नामी खानदान की लडकी का इस तरह यकायक अपने घर से बाहर निकलना ठीक नहीं है. इसमें बड़ी बदनामी होगी। चाहे तुम कितनी ही नेक और पतिव्रता क्यों न बनो मगर कोई भी तुम्हारी नेक चलनी को न मानेमा यहाँ तक कि नरेन्द्रसिह का भी ताना मारने की जगह मिल जायगी, इससे जरूर किसी मर्द को साथ ले लेना चाहिए। रम्भा- ऐसा कौन है जा मेरे पिता से बरखिलाफ होकर ऐसे वक्त में हम लोगों का साथ देगा और जिसके साथ बाहर जाने में बदनामी भी न होगी? तारा - तुम्हारा चरा भाई अर्जुनसिह अगर साथ चले तो अच्छी बात है, उसके सग जाने में किसी तरह की देवकीनन्दन खत्री समग्र ११३०