पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१३

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3 से अत्यंत प्रभावित। लगता है ऐयारी विद्या तंत्र विद्या का एक भाग थी। ऐयारी की मुख्य उपासिका शक्ति जयमाया थी। ऐयारी माया है। यह भी द्रष्टव्य है कि तिलिस्म और ऐयारी का केन्द्र विंध्यवासिनी मन्दिर के आस पास ही रहा है। इसके साथ ही मिर्जापुर और वाराणसी ये दोनों जिले भांग-बूटी छानने के लिए भी प्रसिद्ध रहे हैं। इस प्रकार ये कथाएँ हल्की आंचलिकता का भी संकेत देती हैं। विशेषकर मिर्जापुर के जंगलों का एक वैभवयुक्त विराट चित्र उपस्थित होता है। खत्री जी की इन रचनाओं का एक विचित्र इतिहास है । खत्री मूलतः लेखक न थे । एक दुर्घटनावश इस क्षेत्र में आये । वे काशी राज्य की ओर से चकिया-नौगढ़ के जंगलों के ठेकेदार थे । वहाँ शेर शिकार की मनाही थी। किन्तु संयोगवश एक शेर का शिकार हो गया। इससे नाराज महाराज ने इनका ठेका खत्म कर दिया। इस घटना के बाद खत्री जी उपन्यास लेखन की ओर मुड़ गए। उन्होंने 'उपन्यास लहरी' नामक एक मासिक पत्रिका भी निकाली थी । इसके अतिरिक्त श्री माधव प्रसाद मिश्र के संपादन में प्रकाशित 'सुदर्शन' भी इन्हीं के निर्देशन में निकलता था । लोगों का अनुमान है कि श्री खत्री फैजी के 'दास्तान अमीर हम्जा' तथा 'तिलिस्म होशरुवा' से प्रभावित थे। किन्तु खत्री जी के उपन्यासों में भूत, प्रेत, जिन्न या किसी अलौकिक शक्ति का वर्णन नहीं है। सारा वर्णन पदमावत के समान लौकिक धसतल पर मानव सीमा के भीतर है । इसमें पश्चिमी विज्ञान और पूर्व की वास्तुकला का भी मेल दिखाई पड़ता है। चंद्रकांता और सन्ततिस्वयं में तिलस्म है । लेखक कथा में जगह-जगह ऐसे सूत्र छोड़ता जाता है कि कथा बढ़ती जाती है । न कथा रुकती है, न पाठक रुकता है। अंतहीन कहानी चंद्रकांता से आरंभ होकर भूतनाथ तक चली जाती है। इन उपन्यासों को वैज्ञानिक उपन्यासों का आरंभिक रूप भी कहा जा सकता है । लेखक को अपनी कथा शैली पर पूरा विश्वास है । वह सीधे अपने पाठक से संवाद करता है जिसे वह बयान कहता है। बयानों की संख्या है। पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा आदि। वह काफी देर तक असली नामों को छिपाता है। एक ही नाम के दो व्यक्ति साथ-साथ दीखते हैं। असली कमला और नकली कमला। रूप परिवर्तन तो साधारण बात है। किन्तु रूप परिवर्तन को प्रायः व्यभिचार का माध्यम नहीं बनाता। अगर ऐसा हुआ तो नीच पात्रों द्वारा शराब पीने वाली स्त्री को बुरा मानते हैं। 1 - । प्राचीन युग में साधुओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राज्यच्युत राजा प्रायः साधु होकर जंगल में जीवन बिताते थे। 'मानस' में प्रतापभानु का विरोधी एकतनु ऐसा ही राजा है । खत्री जी के उपन्यासों में ऐसे साधु बहुत से हैं जो समय पर प्रकट होकर अपना काम करते हैं । साधु बनना ऐयारी का भी एक अंग है । ऐयार भी साधु बनकर ठगते हैं। अपना काम करते हैं । रावण भी तो सीता को साधु बन कर ही हर ले गया था। साधुवेश महत्वाकांक्षा को छिपाने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है। दस सिर और बीस भुजा को एक सिर और दो भुजा में बदल कर साधु का वेश धारण करना एक प्रकार की ऐयारी ही तो थी । खत्री जी ने इस कला को बार-बार अपनाकर कथा विकसित की है। तेजसिंह एक बार पागल बनते हैं । स्त्रियों का पुरुष और पुरुष का स्त्री बनना तो बार-बार देखा जा सकता है। अब थोड़ा खत्री जी की भाषा पर विचार करना चाहिए । खत्री जी की भाषा नागरी लिपि में होने मात्र से हिंदी है वरना इसे उर्दू भी कह सकते थे । किन्तु यह उर्दू भी नहीं है। इसकी शब्दावली पर उर्दू का गहरा प्रभाव है। किन्तु इसकी मूल प्रकृति हिंदी वाली है। । (xiv)