पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१४

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। इसीलिये लोग इसे हिंदुस्तानी का अच्छा नमूना कहते हैं। इसके सारे व्याकरणिक रूप उर्दू के न हो कर हिंदी के हैं। किंतु अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता इतनी है कि उर्दू भी झख मारे। प्रत्येक पृष्ठ पर कुछ न कुछ अपरिचित शब्द मिल ही जाते हैं। कहीं-कहीं लेखक ने स्वयं अपने शब्दों के पर्याय कोष्ठकों में दे दिए हैं। जैसे-जापे (सौरी), नयाम (म्यान), संगीन (पत्थर)आदि। हिंदी में सब्जी का सम्बन्ध सामान्यतःरंग सेन होकर वस्तु से है जवकि लेखक लोगों को घास की सब्जी पर बैठा दिखाता है। किंतु कुल मिलाकर भाषा सरल ही है। हाँ, प्रेमचन्द जैसी मुहावरे वाली नहीं है। लेखक का मुख्य ध्यान शब्दों और वर्णनों पर है। विशेषण प्रायः अरबी-फारसी के हैं-हसीन, नमकीन, हरामखोर, रहमदिल, खुशनुमा, आलीशान, आफत का परकाला, दिलजला, परीजमाल, नाजनीन आदि। इन विशेषणों ने उर्दूतथा मुगल कालीन सामंती वातावरण बनाने में सुविधा प्रदान की है। वर्णन में अलंकरण की प्रधानता है। 'अहा, इस समय की छवि देखने लायक है।' 'बदेड़ा हुआ सौन्दर्य, 'सर मुड़ाए बरसाती मेंढक वना बैठा था। 'गंग धडंग औंधी हाँड़ी सा सर, सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा', 'इश्क का मैदान','हुस्न के बागटहलना, 'मुहब्बत गुरू आशिकचेला माशूक भगवान', 'मोहब्बत का दरिया' लड़कपन ने यद्यपि अभी उसका साथ नहीं छोड़ा था मगर नौजवानी के हरकारे ने उसे अपनी जगह छोड़ने का हुक्म सुना दिया था। अज्ञात यौवना का यह वर्णन और भी विस्तार से इस प्रकार है-उसका चेहरा बहुत ही सुन्दर और था, बड़ी-बड़ी आंखें पलकों के अन्दर छिपी हुई थीं। छोटे-छोटे पतले होंठों पर पान की सु/ चढ़ी हुई थी। चौड़ी पेशानी सिंदूर से खाली थी और नुकीली नाक में बेशकीमती मोतियों वाली एक नथ थी जिसकी गोलाई में उस वक्त फर्क पड़ा हुआ था। (गुप्त गोदना) लेखक नखशिख वर्णन में भी सिद्धहस्त है। निहायत हसीन और.कमसिन का प्रयोग बार-बार करता है। कहीं इश्क का मानवीकरण के द्वारा प्रभाव उत्पन्न करता है इश्क भी क्या बुरीबला है ! हाय, इस दुष्ट ने जिसका पीछा किया उसे खराब करके छोड़ दिया और उसके लिए दुनिया भर के अच्छे पदार्थ बेकाम और बुरे बना दिए।" संयोग और वियोग श्रृंगार दोनों का अत्यन्त प्रभावी वर्णन किया है। फलतः कथा केवल भागती नहीं रमाती भी है। रोकती भी है। हाय, आह, वाह, बेशक, अफसोस, लम्बी सांस लेना आदि प्रयोग भागने वाले नहीं रोकने वाले हैं। कहीं-कहीं वर्णन बिल्कुल कविता बन जाता है। खत्री जी उर्दू-फारसी प्रभावित हैं । उसका अंतरंग और बहिरंग दोनों पक्ष उन्होंने लिये हैं। किंतु इनके उपन्यासों में अप्राकृत रति या प्रेम का पूरा अभाव है । हरें हैं। गिलमें नहीं हैं । न तो उर्दू शायरी है । इसलिए कि खत्री जी गद्य शायर हैं । पद्य की छंद वाली शायरी में उनकी रुचि नहीं है। भारती कथाओं की उपदेश पद्धति से भी उन्हें परहेज है। भूलकर भी वे उपदेश नहीं देते हैं । उपदेश को ध्वनित मात्र करते हैं। धार्मिक भावना के वावजूद कथा का धरातल शुद्ध लौकिक है। इह लोकवादी जैसा । आध्यात्मिकता उनकी उद्देश्य सीमा में नहीं है। नाम रखने में भी लेखक ने दृष्टि का परिचय दिया है। सुरेन्द्र, वीरेन्द्र, इन्द्रजीत ये तीनों पीढ़ियाँ इन्द्र हैं। इनके साथ हैं आनन्दसिंह । सबसे होशियार ऐयार तेजसिंह । उसका बाप जीतसिंह । चंद्रकांता, चपला, चंपा की चर्चा ऊपर आ चुकी है । ये 'च' चमत्कालिए हैं। चंद्रकांता की माँ रत्नगर्भा, (समुद्र) । चन्द्र समुद्र से ही पैदा हुआ है। इनके विरोधी हैं क्रूरसिंह, फतहसिंह, घसीटासिंह, जालिमसिंह आदि। भूतनाथ तो ऐयारों का बादशाह ही है। ऐयारों की निष्ठा और स्वामिभक्ति देखने लायक है। प्राण देकर भी लोग स्वामी का काम करते हैं । भेद नहीं खोलते। किन्तु असत् से ऊबकर अलग भी हो जाते हैं। केवल मायारानी है जो अपने ऐयार की हत्या कर देती है। असत्पात्र कुछ भी कर सकते हैं किन्तु सत्पात्र जरा भी नहीं चूकते। घोर संकट में भी अपनी नैतिकता बनाए रहते हैं। स्त्री पर कभी हाथ नहीं 1 - 1 । (xv)