पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१५६

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Jari बहा -- जी कहना सुनना तो जरूर है, अगर आम सडक का खयाल हो तो चलिए कोठडी में घुस चलें । बजाज – (हॅस कर ) खूब कही " बहा- अच्छा उस लडकी के बाप का तो नाम बताइयेगा या वह भी नहीं ? बजाज- इसमें क्या हर्ज है सुनिए-वह पटने के जिमींदार गुलाबसिह की लडकी है और उसका नाम रम्भा है। क्या तुम उसे नहीं जानते ? अरे वही जिसके लिए बिहार के राजा उदयसिह के पुत्र नरेन्द्रसिह से फसाद मच चुका है। बहा- वाह वाह उन लोगों को मै खूब जानता हूँ और लड़की की तोनस नस से वाकिफ हू (गर्दन हिलाकर) लेकिन बुरा हुआ अगर यह नरेन्द्रसिह के घर जाती तो अच्छा होता, उस शैतान की चाहे जो दुर्दशा होती हमें कुछ रञ्ज नथा मगर यहाँ तुम्हारे राजा के लडके से ब्याही गई तो ठीक न होगा। हाय । अव तो गई बेचारे बच्चे की जान । बुरा हुआ, बहुत ही बुरा हुआ ! रम्भा का हाल तो बहादुरसिह से छिपा ही नहीं था वह नरेन्दसिह के लिए घर छोड़ कर निकल गई थी सो भी यह बखूबी जानते थे। आज वही बैचारी रम्भा इस मुसीबत में आ पड़ी,इसका बहादुरसिह को बहुत ही रञ्ज हुआ मगर वे अपनी चलाकी से कब चूकने वाले थे ! कोई न कोई तर्कीब सोच ही तो ली। बहादुरसिह ने जब विचित्र मुद्रा से गर्दन हिला कर कहा कि हाय अब गई बेचारे बच्चे की जान ! बुरा हुआ, बहुत ही बुरा हुआ ॥ तो वह बेचारा बजाज और वहाँ बैठे हुए आदमी भी सभी घबडा गये कि आखिर यह कह क्या रहा है ! हमारे राजा के लडके की जान भला क्यों जाने लगी ? आखिर बजाज से न रह गया, उसने बहादुरसिह से पूछा- 'सो क्या इसमें जान जाने की कौन सी बात है?' बहा- अजी यह राजा के घर की बातचीत है इस तरह दस आदमी के बीच में नहीं कही जाती लो अब मै जाता अब इस शहर में रहना और सिसक कर किसी को मरते देखना मुझे मजूर नहीं। ( उठने की तैयारी करने लगे। बजाज - (हाथ पकड कर ) अजी बैठो तो, घबडा क्यों गये, मुझे अभी तुमसे बहुत काम है। बहा - राम राम काम से तो मैं कोसों भागता हु। बजाज - अच्छा जरा ठहरिये तो। बहा - अच्छा दो बात मानने का वादा कीजिये तो जरा सा क्या दो-तीन दिन तक ठहर जायें । बजाज- कहिय कहिये, मुझे पहिले ही से मजूर है ऐसा कौन होगा जो आप ऐसे खुशदिल आदमी से अलग होना चाहेगा? बहा - अच्छा तो फिर वह बातें कह डालू? बजाज - हाँ हाँ कहिए और बहुत जल्द कहिए । बहा - एक तो यह कि मैं तुम्हारे यहाँ दो-तीन दिन तक डेरा डालूगा और भग घोंट-घोंट कर पीऊगा। डरो मत खाने-पीने में मैं अपने पास से खर्च करूँगा तुम्हारे रुपये बर्बाद न होने दूगा। बजाज - अजी अब जल्दी कहो भी, कि लगे मुर्गी की टॉग तोडने । मैं इतना कगाल नहीं हूँ कि दो-चार महीने तुम्हारी दावत न कर सकू ! खाओ न कितना गुलाबजामुन छील-छील कर खाओगे दोरुखी हार मानो तो सही । बहा - अच्छा खैर तो मेरी दूसरी बात भी तो सुन लो? बजाज-उसे भी कह डालो। बहा- वह यह है कि जो बात तुम मुझसे पूछ रहे हो उसके जानने की इस समय जिद्द न करो, निराले में रात को या कल सब कुछ मुझसे सुन लेना, अजी मै त्रैलोक्य का हाल बता सकता हूँ यह तो मामला ही क्या है । मै बडे काम का आदमी हू, मरने के बाद भी मेरी एक-एक हुडडी दो-दो लाख की नीलाम होगी। बजाज - क्या बात है आपकी । बहा – नहीं नहीं क्या बात किसी दूसरे की होगी, मेरी बडी बात है। बजाज - अच्छा साहब मुझे यह भी मजूर है। थोडी दर तक और मसखरेपन की बातचीत होती रही बहादुरसिह की बातों से सभी हसते-हसते लोट-पोट हुए जाते थे। दोपहर को बजाज ने दुकान बन्द की और बहादुरसिह को साथ ले घर गया । बहादुरसिह ने उसके घर डेरा डाला और थोड़ी देर आराम करने के बाद घूमने-फिरने के लिये बाहर निकले, लेकिन बाजार का रास्ता छोड़ किले की तरफ रवाना हो गए। किले की एक खिडकी ठीक गण्डक नदी के किनारे ही पडली थी और उस राह से बहुत से आदमी गण्डक के किनारे आते थे कई सर्कारी लौडियाँ भी उसी राह से जल भरने के लिए आ-जा रही थीं। वहादुरसिह चाहे कितना ही बडा मसखरा और बेवकूफ क्यों न समझा जाय मगर असल में वह बडा ही चालाक और धूर्त था। वह बखूबी जानता था कि रम्भा जीते जी सिवाय नरेन्द्रसिह के किसी दूसरे से शादी न करेगी। उन्ही के लिए ता वह जान पर खेलकर घर के बाहर निकल गई थी पर न मालूम किस तरह इन दुष्टों के हाथ लग गई अब वह सोच रहा था कि कोई तर्कीब ऐसी करनी चाहिए जिसमें यहाँ से उसकी रिहाई हो जाय। इसीधुन में डूबा हुआ वह एक देवकीनन्दन खत्री समग्र ११५८