पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१५८

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-- बुढ़िया बुढिया - हाँ हाँ मैं चलूगी। अच्छा यह सिकरी तू लती जा मेर भाई को दे दीजियो । बुढिया - (सिकरी उठा कर ) खैर जिसमें तू खुश हो मै वही करूगी । दो चार बातें और करके बुढिया वहाँ से चली गई और वहादुरसिह भी अपना काम हो जाने की खुशी में मस्त झूमते हुए अपने नये दोस्त बजाज के यहां पहुंचे जिसने अपने घर में रख कर इनकी बड़ी खातिरदारी की। यहादुर सिह ने भी अपन मसखरेपन स यजाज को बहुत ही खुश किया बल्कि अपना दोस्त बना लिया ! दूसर दिन बुढिया से मिलने के लिए बहादुरसिह फिर उसी जगह पहुंचे। आज बुढिया के साथ उसका लडका भी था जो बहादुरसिह से खुशी-खुशी सगे भाई की तरह गले मिला और देर तक बातचीत करता रहा। वहादुरसिह को निश्चय हो गया कि अब मेरा काम अवश्य हो जायेगा। आखिर-धीरे-धीर बहादुरसिह ने अपने मतलब वाली बात छेडी। वहा - अच्छा मॉ यता अब घर कब चलेगी? - जब कहो तब चलूँ। बहा- अपने बनाए भाइ अथात बुढिया के लडके की तरफ देखकर) भाईजान मै तुम्हें चिटठी देता हूँ। उसे तुम बिहार के राजा उदयसिह के पास ले जाओ। हमको वह अपने भाई की तरह मानते हैं। हमारा बहुत सारुपया उनके यहाँ जमा है हमारे घर की ताली भी उन्हीं के यहाँ है वह तुमका हमार घर की ताली और दस हजार रुपया नगद देंगे और हमार नौकरो को बुलाकर तुम्हें सहेज देंगे और कह देंगे कि यह यहादुरसिह जवहरी का भाई है। फिर वे लोग तुम्हारा हुक्म मानेग। तुम घर का इन्तजाम करना और आज के ठीक पन्दहवें दिन घर में से चॉदीवाली पालकी और सोलह कहारों को लेकर शहर के पाँच कोस इधर चले आना जिसमें हम माताजी को इज्जत के साथ घर ले जाय। (कमर से एक चिट्ठी और दस अशर्फी निकाल कर) ला यह चिटठी राजा साहब को देना और यह अशर्फियों रास्ते में खर्च करना। एक घोडा किराया कर लो और हॉका-हॉकी चले जाओ। बुढिया के लडके रामदास ने यह कहकर कि कल सरकार से छुटटी लेकर मै जरूर चला जाऊगा बहादुरसिह के हाथ से अशर्फी और चिटठी ले ली। इसके बाद अपने-अपने ठिकाने चले जाने के लिए तीनों आदमी खडे हो गये। बहादुरसिह ने अपनी माताजी की तरफ देख कर पूछा-- मॉ यह तो बताओ यहा लोगों ने तुम्हारा नाम क्या रक्खा है ? बुढिया-चमेला दाई। बहा -- राम राम अच्छा भला नाम बदल कर क्या बुरा नाम रख दिया बस चले तो सभों का नाक काट डालू । अच्छा इस वक्त तो जाता हूँ लेकिन कल जरूर यहा ही मिलना, किसी से डरना मत । चमेला - लो में डरन क्यों लगी। अपने लडके से मिलती हूँ इसमें भी किसी का इजारा है ॥ वहा-(पैर छू कर ) अच्छा तो अब जाता हूँ। बीसवां बयान हाजीपुर के राजा दौलतसिह का लडका प्रतापसिह बड़ा ही उजडड था। उसे पढने-लिखने का शौक विल्कुल न था यहा तक कि सिवाय दस्तखत करने के अपने हाथ से एक चीठी भी नहीं लिख सकता था। दस-बीस गपोडी और बात- बात में तारीफ करने वाले साथियों के साथ हाहान्ठीठी में दिन बिताया करता था, हा कविता का शौक इसे जरूर था। इन दिनों तो यह शादी होने की खुशी में फूला हुआ है।रभा जब से इसके घर में आई है, छिपकर दो दफे उसकी सूरत देख चुका है और अपने साथियों के बीच में बैठ कर उसकी खूबसूरती की तारीफ किया करता है। इसे भग और गांजे का बहुत शौक है दिन में तीन-तीन दफे बूटी छना करती है और दिन-रात नशे में चूर रहता है। बहादुरसिह ने इसके चाल-चलन का पता अच्छी तरह लगा लिया था इसलिए सध्या को बूटी पीने का समय विचार वह उसी नजरवाग के दरवाजे पर पहुंचा जिसमें नित्य प्रतापसिह बूटीपी,पहर रात गए तक गप्प उडाया करता था। पहरे वाले से कहा कुमार को बहुत जल्द खबर करो कि एक विजया के सिद्धजी तुमसे मिलने आये है। पहरे वाले सिपाहियों को बहादुरसिह की सूरत-शक्ल पर बड़ी ही हसी आई। यह समझ कर कि हमारे कुअर साहब ऐसी देख बहुत ही खुश होंगे- एक सिपाही दौडा हुआ याग के अन्दर गया और कुअर साहब को सलाम कर बोला- सरकार आज एक विचित्र आदमी सरकार से मिलने के लिए आया है जिसकी सूरत देखने से मारे हसी के दम निकला जाता है। उसने अपना नाम विजया के सिद्धजी' बतलाया है। हुक्म हो तो आने दिया जाय। कुमार - हाँ हाँ उन्हें बहुत जल्द हमारे सामने लाओ। सिपाही हुक्म पाते ही लपका हुआ बाहर गया और बहुत जल्द बहादुर सिह को लिए हुए कुँअर साहब के सामने सूरत हाजिर हुआ। देवकीनन्दन खत्री समग्र ११६०