पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दोहा पाठक महाशय यह न समझें कि बहादुरसिह को जिस सूरत में पहिले देख चुके हैं आज भी उसी सूरत-शक्ल में देखेंगे। नहीं आज वह एक नए ही ढग का वाका जवान बना है। सिर से पैर तक अपने को सिदूर से रग खासा महावीर बना हुआ है धोती कुते या टोपी से कुछ वास्ता नहीं जॉघिया कसे और भॉग का झोला बगल में लटकाये हुए है हाथ में मग घोंटने का डडा और टोपी की जगह भग घोटने की बडी सी फॅडी सिर पर औधे हुए है। कुअर साहब के सामने पहुंचते ही बहादुरसिह ने आशीर्वाद में यह दोहा पढा- दोहा महादेव की परम प्रिय, सिद्धन की सिधि जोय। आवनहार अरिष्ट तुब टारहिं विजया सोय ॥ भगेडी के सामने जब भग की तारीफ की जाय तो वह बडा प्रसन्न होता है। बहादुरसिह के दोहे से कुंवर साहब बहुत ही प्रसन्न हुए और समझ गय कि यह विजयादेवी का इष्ट है मगर साथ ही इसके दोहे के तीसरे चरण से उन्हें खुटका भी हुआ लेकिन वह समझकर कि सिद्धजी कहीं जाते ता है ही नहीं फिर पूछ लिया जायेगा कि इस दोहे का तीसरा चरण आपने ऐसा क्यों कहा इस विषय में कुछ न पूछा। कुअर - ( हंसते हुए) आइये आइये सिद्धजी यह आसन बिछा हुआ है,चैठिये, कुशल तो है ? सिद्ध- देहि विजय तुमको सदा, सो विजया बरदानि। नित हम लहि जाकी कृपा रहत अभय सुखमानि ॥ कुँवर – वाह वाह सिद्धजी क्या बात है विजया ऐसी ही वस्तु है । सिद्ध - इसमें क्या सन्देह अन्नदाता देखिये- देत अमन्द अनन्द दन्द दुख दूर बहावै । भामिनी भोजन ओर दुचन्द चाह उपजावै ॥ सप्त दीप को वर महीप छिन माहि बनावै। अष्ट सिद्धि सुख अनुभव विनहि प्रयास करावै ॥ नन्दन बन कैलास अरु स्वर्ग विभव दुर्लभ जिते । करति सुलम अपनी कृपा करत देखि विजया तिते ।। कुंअर-वाह.वाह वाह क्या बात है सिद्धजी ! विजया देवी की महिमा अकथनीय है। कहिये आपका मकान सिद्ध - मेरा मकान तो कहीं भी नहीं है,मेरे बाप का मकान काशी था सो अब नहीं है। कुअर -- (हस कर सो अब नहीं है,इसका क्या मतलब ? क्या वाप के मर जाने से मकान भी टूट जाता है ? सिद्ध-जी नहीं मरने से तो मकान नहीं टूटता मगर वह तो काशी में मर के मोक्ष हो गये इसलिये मिलने की अब कोई उम्मीद न रही दादा का मकान दरभगे था सो उनकी भी गया किए आरहा हू इसलिये अब वह भी गया गुजरा हुआ। हाँ परदादा का मकान मुलतान था. सो गयाजी जाने पर भी मैने उनके नाम का पिण्डा न दिया, आखिर अपने बुजुर्गों में से किसी का पता-ठिकाना तो रहने देना चाहिए ! सिद्धजी की बेसिर-पैर की बातों पर सभी हस पड़े और कुँवर साहब न फिर पूछा- कुअर--क्या गयाजी में तुमने अपने परदादा का पिण्डा नहीं दिया इससे उनका मकान मुलतान में बचा रह गया? सिद्ध- आप समझे नहीं, मकान उसी को कहते हैं जहा कोई रहे चाहे जीता-जागता रहे या मरने के बाद भूत होकर 'रहे, जब मैने गया में उनके नाम का पिण्डा नहीं दिया तो आखिर भूत होकर तो वहा रहेंगे ! पिण्डा दे देता तो उनकी भी गति हो जाती तो फिर मकान से उनका रिश्ता न टूट जाता । कुअर -- तो क्या आपको निश्चय है कि वह भूत होकर वहा है ? सिद्ध - जी हा, मुझसे कई दफे मुलाकात हो चुकी है ? कुअर – फिर किस तरह मुलाकात हो चुकी है ? सिद्ध - यस किसी के सिर पर आकर दो चार बातें कर गए मुलाकात हो गई जैसे गुलाबसिह की दादी। कुँअर 1- कौन गुलावसिह की दादी? सिद्ध-(हाथ उठाकर) अजी यही पटने के जिमींदार गुलाबसिह की दादी मगर वह तो बड़ी ही वेढव है खाली अपनी परपोती रम्भा ही के सिर आया करती है। कुँअर -- (चौक कर और डर कर ) तुम्हें कैसे मालूम कि रम्भा के सिर पर उसकी परदादी आया करती है। सिद्ध - मै स्वय देख चुका हू और दुख भोग चुका है। कुँअर -क्या रम्भा के सिर पर उसकी परदादी को आते खुद देख चुके है? कहा है। नरेन्द्र मोहिनी ११६१