पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१६

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रचनाएँ चंद्रकांता चंद्रकांता मूलतः प्रेम कहानी है। जंगल और पहाड़ियों में वसा नौगढ़ (वाराणसी जिले का एक तहसील है । कस्बा है ।) के राजा सुरेन्द्रसिंह के राजकुमार वीरेन्द्रसिंह और विजयगढ़ (मिर्जापुरजिला) के राजा जयसिंह की राजकुमारी चंद्रकांता में प्रेम हो गया । किन्तु विजयगढ़ के दीवान का लड़का श्री क्रूरसिंह भी चंद्रकान्ता की ओर आकृष्ट था । क्रूर नामक यह व्यक्ति निम्न स्तर का है। यह प्रेम से नहीं, क्रूरता पूर्वक चंद्रकांता को प्राप्त करने की कोशिश करता है। किंतु उस शैतान की हर कोशिश विफल होती है। वह दो प्रेमियों के मिलन को रोक न सका । विघ्नों से चंद्रकांता और जीरेंद्रसिंह के प्रेम में किसी प्रकार की कमी नहीं आती है । क्रूर और उसके साथियों का अंत होता है । इसी क्रूर के बहकावे में चुनार (मिर्जापुर) के राजा शिवदत्तसिंह भी चंद्रकांता को पाने की कोशिश करते हैं। किंतु उन्हें भी सफलता की कौन कहे राज्य से भी हाथ धोना पड़ता है । किन्तु राजा सुरेन्द्रसिंह की उदारता और क्षमादान की प्रवृत्ति से वे बच जाते हैं। फिर भी वे पड्यंत्र करने से नहीं चूकते । इसमें क्षमा और छल दोनों के महत्व की अभिव्यक्ति हुई है। चंद्रकांता के साथ चपला और चंपा दो और स्त्रियां हैं। ये दोनों ऐयारा हैं और क्रमशः तेजसिंह और देवीसिंह की प्रेमिकाएँ हैं । वीरेन्द्रसिंह के साथ जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, बद्रीनाथ, जगन्नाथ ज्योतिषी आदि ऐयार हैं । ये ऐयार और ऐयारा ही पूरी कथा को विकसित करते हैं । तिलस्म में फंसना और गिरफ्तारी के कौतूहल युक्त भय के संसार में पाठक उत्सुकता पूर्वक ऐयारों द्वारा मुक्ति का इन्तजार करता है। एक मुक्ति होती है तब तक दूसरे बंधन का दृश्य उपस्थित हो जाता है । इस प्रकार पूरा उपन्यास बंधन और मुक्ति, मुक्ति और बंधन के चक्कर में घूमता है । अंत में बीरेन्द्रसिंह तिलिस्म तोड़कर उसमें फंसी चंद्रकांता का उद्धार करते हैं । तिलिस्म तोड़ने से उन्हें प्रचुर संपत्ति भी मिलती है। बीरेन्द्रसिंह के साथ चंद्रकांता, तेजसिंह के साथ चपला और देवीसिंह के साथ चंपा का "विवाह होता है । कथा का अंत सुखमय होता है । चंद्रकांता संतति यह उपन्यास चौवीस भागों में विभक्त है। इसमें चंद्रकांता और बीरेन्द्रसिंह के दो पुत्र कुँअर इन्द्रजीतसिंह और कुँअर आनन्दसिंह की कहानी मुख्य है। इसके अतिरिक्त भी अनेक पिता, पुत्र, पुत्री आदि की कहानियाँ जाल सी गुंथी हैं। एक साथ ही दो-दो, तीन-तीन पीढ़ियाँ कार्यरत हैं। उदाहरण के लिए राजा सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह और इन्द्रजीतसिंह एवं आनन्दसिंह तीन पीढ़ियों को लिए लोग हैं। विना किसी रिटायरमेंट के पिता, पुत्र, पौत्र के अच्छे सम्बन्ध हैं। 'संतति' का कथा क्षेत्र बनारस से बिहार तक फैला है। अनेक राजे और राजधानियाँ हैं । पात्रों की भीड़ लगी है। हर पात्र घटना सम्बद्ध है। इसलिये घटनाओं में विविधता, विशालता और फैलाव इतना अधिक है कि सामान्य आदमी भटक जाय । किन्तु लेखक कासंयोजन विचित्र है। वह हर घटना, पात्र और परिस्थिति का ऐसा संयोजन करता है कि कुछ छूट न जाय । कुछ अतिरिक्त और अस्वाभाविक न लगे। जितने पुरुष पात्र हैं लगभग उतनी ही स्त्रियाँ हैं। स्त्रियाँ सभी प्रकार की हैं। राजमहिषी से लेकर बाँदी तक। -- (xvii)