पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१६०

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दि सिद्ध -- जी हाँ, कहा तो कि देख चुका हूँ और दुख भोग चुका है। कुँअर - आपको क्या दुख भोगना पड़ा? सिद्ध ~ सो न पूछिये बड़ी लम्बी-चौड़ी कथा है। कुँअर - भला कहिए तो सही। सिद्ध- आप जिद्द करत है तो खैर सुनिय में कहता हूँ। रम्भा की परदादी के साथ और भी बहुत सी चुडैलें है। जब वह रम्भा के ऊपर आती है और रम्भा किसी के सिर पर हाथ रख देती है या धोखे से हाथ पड़ जाता है तो कोई न कोई चुडेल उसके ऊपर भी आ जाती है और उसकी हडडी-हडडी हिला दती है। एक दिन में इसी तरह पटन में गुलाबसिह के यहा गया हुआ था। शाम होते-होते महल में खूब शोरगुल मचा जिसे सुन गुलावसिह घबडा गए। मैंने उनसे उरने का सबब पूछा । वे बेचारे सूधे आदमी साफ बोल उठे.कि हमारी लड़की पर हर अमावस्या के दिन चुडेल आती है सो आज अमावस्या है मालूम होता है कि यही बखेडा फिर महल में मचा है। शामत की मार मरे मुह से निकल गया कि में भूत उतार सकता हू मुझ ले चलिए । यस साहब वह मुझे अपन जनाने में ल गए। भैन जाते ही ललकारा बस खवरदार ।' इतनाकहना था कि वह विगडी और झट मरे पास आकर मर सिर पर हाथ रख ही ता दिया। बस फिर क्या पूछना है उसी समय में बदहवास हो गया। न मालूम मेरी क्या दुर्दशा हुई दूसरे दिन जब होश आया तो अपने को गगा किनारे वालू पर पड़ा हुआ पाया। हाय हाय !! यह दिन मुझ कभी न भूलगा । पन्द्रह दिन तक मेरा बन्द बन्द दुखता रहा !मरत-मरते बचा। अव जो मुझे कोई कहे कि तुम्हें लाख रूपय दूंगा तुम पटने चला तो बस जाने वाले की सात पुश्त पर लानत भेजता हू, अय तो यह भी सुना है कि उन्होंने लाचार होकर रम्भा को निकाल दिया आर वहाना कर दिया कि वह खुद कही भाग गई। सिद्धजी की यातें सुनकर कुँअर साहब तो बदहवास हो गए। बदन के रोगटे खड हो गए कलेजा धक-धक करने लगा, सोचने लगे कि हाय उसी रम्भा स तो मेरी शादी होने वाली है । कहीं सिद्धजी की बात सच हुई ता मुफ्त में जान गई। कहीं मेरे भी सिर पर हाथ रख देगी तो यस में गया गुजरा | लकिन कहीं सिद्धजी गप्प नउड़ाते हों - यह सोचकर कुँवर साहब ने फिर पूछा, क्या सिद्धजी आप यह सच्य कह रहे है ? मुझे तो विश्वास नहीं होता । सिद्ध - नहीं विश्वास हाता तो मेरी बला से । अगर आपका सच-झूठ मालूम करना है ता पता लगवाइय कि रम्भा कहाँ है फिर अमावस्या के दिन उसके पास चलिए और देखिए तमाशा ! कुँअर - राभा का पता तो मुझे मालून है। सिद्ध ता बस जिस शहर में वह हा वहाँ जाइये और अमावस्या की शाम का उससे भिलिय । कुअर - रम्भा इस समय इसी शहर में है और अमावस्या को भी थोड ही दिन है। सिद्ध (चोक कर ) क्या रम्भा इसी शहर में है? कुँअर - जी हाँ बल्कि हमारे ही मकान में है। हाय हाय । बडा गजब हुआ ! हे परमेश्वर मैन तेरा क्या विगाडा था जो तू मुझको इस शहर में ले आया । अव जान बचा । यह वकता हुआ यहादुरसिह वहां से भागा । कुवर साहब पुकारते ही रह गए कि हाँ हाँ 'सिद्धजी सुनिए तो, सुनिए ता ! मगर सुनता कौन है ? यह ता कूडी साटा तक फेंक क भाग। दवाज पर पहरे वाला न राका तो यह जमीन पर लाट गए और मार डाला मार डाला मरे रे मरे रे ॥ कह कर चिल्लाने लगालाचार सभों ने छोड़ दिया और वहादुरसिह हॉफत हुए वहा से भागे। कुअर साहब के दिल की क्या हालत थी यह तो व ही जानते होंगे। सिद्धजी के भागने बाद वह घन्टों तक परेशान रहे और तरहतरह की बातें सोचते रहे। शादी की खुशी गम के साथ बदल गई। यहाँ तक डरे कि मा से मिलने के लिये भी महल म जाने की हिम्मत न रही। आखिर डरते डरते अपन एक दोस्त का साथ ले बाप के पास पहुंचे और सिर नीचा कर चुपचाप बगल में बैठ रहे। उदासी का सबब बहुत पूछन पर कुवर साहब के दोस्त न विजया क सिद्धजी का सब हाल कहा । राजा दोलतसिह सुन कर चुप हा रहे लेकिन कुछ दर सोचने के बाद बोले, "ओफ यह सब वाहियात बात है। हम नहीं मानते, भूत-प्रेत कोई चीज नहीं सब ढकासला है। तुम्ह लडका समझ के बहका दिया होगा। फिर तरदुद की बात ही क्या है ? अमावस्या का छ ही सात रोज वाकी है बस तुम्हारे दिल से शक दूर हो जायगा।" इक्कीसवां बयान पुनपुन नदी के किनार पड हुए लश्कर पर छापा मार जब नरेन्द्रसिह और जगजीतसिह दोनों औरतों को छीन लाये तो थोडी दूर पहुँचने के बाद मालूम हुआ कि इन दोनों में रम्भा नहीं है। तारा और गुलाव को पाने से एक तरह खुशी हुई मगर रम्भा के हाथ न लगन से यह खुशी नरेन्द्रसिह की बढती हा उदासी को किसी तरह कम न कर सकी। नरेन्दसिह ने तारा से पूछा 'तेरे साथ ही तो रम्भा भी पकडी गई थी, यह कहां है ? देवकीनन्दन खत्री समग्र ११६२