पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१७०

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A बहादुर- अभी हमें इस बात पर पूरा विश्वास नहीं होता मगर महल से एक लाश निकाल कर गगा किनारे जलाई गई इससे विश्वास भी करना ही पड़ता है। यह बात नरेन्द्रसिह से अभी मत कहियेगा नहीं तो गजब हो जायेगा। जगजीत - हाय बुरा हुआ ! मगर तुमने कैसे सुना? बहादुर - हमारी दोस्ती वहाँ के एक बजाज से हो गई. राजदर्बार से उसका घना सम्बन्ध है उसी की मार्फत यह सब बातें मालूम हुई है। बहादुरसिह की बातें सुन कर जगजीतसिह के चेहरे पर उदासी छा गई और आँखों से आंसू की बूदे गिरने लगी, मगर इस खयाल से कि नरेन्द्रसिह को पता न लगे उन्होंने बहुत जल्द अपने को सम्हाला और मुँह हाथ धोकर दुरूस्त हो गए। नरेन्दसिह अपने घर पहुंचे और फौज दुरूस्त करके हाजीपुर पर चढाई करने की फिक में पडे। मगर यह बात मुश्किल थी क्योंकि जगजीतसिह और बहादुरसिह ने रम्भा के मारे जाने का हाल महाराज से कह दिया था। महाराज को भी इसका भारी गम हुआ मगर खुल कर कुछ कर या कह भी नहीं सकते थे क्योंकि इस बात का खयाल था कि अगर नरेन्दसिह सुनेंगे तो अपना बुरा हाल करेंगे ओर उनसे छिपाया भी जाय तो कब तक? नरेन्द्रसिह लडाई की तैयारी किया चाहते है उन्हें रोका जाय तो क्योंकर ? क्योंकि जब रम्भा ही न रही तो लडाई किसके लिये ? इत्यादि बहुत सी बातों को सोचते हुए महाराज बहुत ही विकल हो रहे थे, साथ ही इसके बहादुरसिह का यह कहना भी अजब तरह का खुटका पैदा कर रहा था कि अभी रम्भा के मरने का हम निश्चय नहीं कर सकते ताज्जुब नहीं कोई चालबाजी की गई हो। चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न की जाय मगर जिगर में घाव करने वाले गम की हालत किसी तरह छिपाये नही छिपती रम्भा के मरने की खबर अभी तक यहॉ सिर्फ तीन ही आदमी जानते है और तीनों ही उस खबर को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं मगर उदासी उनके चेहरे का साथ नहीं छोडती जिसे देख-देख नरेन्द्रसिह भी बेचैन हो रहे है लेकिन उदासी का सबब उन्हें किसी तरह मालूम नहीं होता। रात के समय नरेन्द्रसिह मोहिनी से मिलने के लिए उस मकान में गए जहा पहिले उससे मिले थे। इन्हें देख मोहिनी बहुत खुश हुई और बडी खातिर और मुहब्बत से पेश आई। मोहिनी - आप तो कह गए थे कि बहुत जल्द लौटेंगे 1 नरेन्द्र -हॉ उम्मीद तो ऐसी ही थी मगर देर हो गई। मोहिनी- रम्भा को ले आये? नरेन्द्र - नहीं। मोहिनी-सो क्यों? नरेन्द्र – वह तीब जो बहादुरसिह ने की थी दुरूस्त न उतरी, अव फोज लेकर जाना पड़ेगा। बहुत देर तक इन दोनों में बातचीत होती रही। जहाँ तक हो सका मोहिनी ने मुहब्बत जताने में कोई बात उठान रक्खी। अपने हाथ से कई चीजें खाने की बना नरेन्द्रसिह को भोजन कराया और नित्य मिलने का वादा करा के विदा किया। . सत्ताईसवां बयान आधी रात से ज्यादे जा चुकी है। एक सुन्दर सजे हुए कमरे में पलग के ऊपर बेचारे नरेन्द्रसिह बीमार पड़े हुए है। महाराज उदयसिह और कुँअर जगजीतसिह सुस्त और उदास उनके पास बैठे हैं। बहादुरसिह भी एक तरफ बैठे रो रहे हैं। कई हकीम और वैद्य भी दवा इलाज की फिक्र में लगे हुए है मगर बीमारी क्या है इसका पता ही नहीं लगता । जाहिर में तो पेट और कलेजे में जलन की शिकायत करते है। चेहरा जर्द पड गया है घटे-घटे बाद कै होती है मगर सिवाय खून के और कुछ नहीं निकलता। सभी के चेहरे पर उदासी छाई हुई है। लोग दौड धूप कर रहे हैं। इस समय किसी के आने जाने की रुकावट नहीं है, जिसका जी चाहे आवे-जाये कोई कुछ नहीं पूछता। ऐसी ही अवस्था में लोगों ने देखा कि हाथ में कागज का एक मुट्ठा लिये हुए मोहिनी उस कमरे में घुस आई और राजा उदयसिह के हाथ में कागज का मुट्ठा देकर दूर खड़ी होकर बोली 'मुझे ऐसी अवस्था में इस ढग से यहा पहुंचे हुए देख आपको आश्चर्य होगा मगर मैं इसका सबब और इसके अन्तर्गत जो-जो बातें छिपी हुई है जुबानी न कह कर यह कागज का मुट्ठा आपके हाथ में देती हूँ। इसे किसी ऐसे के हवाले कीजिये जो शुरू से आखीर तक ऊची आवाज में पढ के सुना दे। मैं पुकार कर लोगों से कहे देती हूँ कि सब लोग ध्यान देकर सुनें कि इस कागज में क्या लिखा है और मालूम करें कि मोहिनी कौन थी और इस दुनिया में आकर उसने क्या किया | अफसोस, आज वह दिन है कि हजारों आदमी रोवेंगे और मोहिनी को अर्थात् मुझको गालिया देंगे। खैर मै इसी को गनीमत समझती हूँ क्योंकि ये सब काटे मेरे ही बोये हुए हैं और सेव के पहिले इसका फल भोगने के लिये मैं तैयार हूँ। इस समय मोहिनी की अजीब सूरत थी सर के बाल बिखरे हुए थे आखें सुखं हो रही थी, और बोलते समय होठ कॉप रहे थे, पर उसकी विचित्र बातों ने सभों का ध्यान अपनी तरफखैच लिया। राजा उदयसिह नरेन्द्रसिह जगजीतसिह देवकीनन्दन खत्री समग्र ११७२ 1