पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१७१

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. और बहादुरसिंह के दिल में इस समय क्या-क्या बातें पैदा हो रही थी उनका समझना मुश्किल है। राजा उदयसिह ने वह कागज का मुट्ठा माहिनी क हाथ स ले लिया और पटिल स्वय याल कर देया। यह मुटठा बहुत लम्बा और जन्मपत्री के तौर पर लपटा हुआ था। इसमें कई चन्द लिख हुए कागज के गोद स नवरवार चिपकाये हुए थे। इसमें पहिला यन्द कागज का जो सब स ऊपर था स्याह रोशनाई से और इसके बाद कई बन्द लाल रोशनाईस लिखे हुए थ! राजा उदयसिह ने वह कागज का मुट्ठा एक मुन्शी के हाथ में दिया और ऊचे स्वर से पढ़ने के लिए कहा। मुन्शी ने पढना शुरू किया। पहिले जा कुछ स्याह राशनाई से लिखा हुआ था, यह था - इस कागज के पढ़ने से आप लागों का मालूम होगा कि मैंने इस राज्य के साथ बडी भारी बुराई की है। ऐसी अवस्था में आप लोगों को पहिल यह मालूम हाना चाहिय कि मै किसकी लडकी हूँ और मेरे बाप ने इस दुनिया में अपनी करतूतों का क्या बुरा फल उठाया था। इसके बाद आपको मालूम होगा कि मैन औरत हाकर क्या-क्या किया ! मरे याप ने अपनी जिन्दगी का हाल स्वय लिखा था उसके बाद जो कुछ कसर रह गई थी उसे मैने पूरा किया और उसी में अपना हाल भी मिलाकर यह मुट्ठा पूरा किया। इसमें जहा तक लाल रोशनाई से लिखा हुआ है वह मेरे पिता क हाथ का लिखा है और पहिले उसी को पढना मुनासिव हागा तथा उसी ढग से मैने इस लख का सिलसिला दुरूस्त भी किया है। लाल रोशनाई सजा कुछ लिखा था, वह यह था --- 'मेरा नाम हजारीसिह है। मैंने अपनी करनी से जो कुछ तकलीफें उठाई सक्षेप में लिख कर एक ठिकारे रख दना चाहता हूँ। इसमें सदह नहीं कि इस कागज के पढ़ने वालों पर मेरी युराई खुल जायेगी और मै बदनाम हो जाऊगा मगर यह समझकर कि मेरे इस हाल को पढ़ कर लागों को नसीहत होगी और व वैसे काम न करें। जिनकी बदालत मेन तकलीफें उठाई और अभी तक जान का खौफ बना ही है मैं एसा करता हूँ। मैं नहीं कह सकता कि मरी जिन्दगी का आखिरी दिन आज हागा या कल। मेर पिता मेर लिए पचास हजार की आमदनी की जमींदारी और बहुत कुछ दौलत छाड गए। मरी शादी उन्होंन अपनी जिन्दगी ही में कर दी थी मगर मेरी औरत बदसूरत थी इसलिये मै उससे मुहब्बत नही करता था मरी अवस्था उस वक्त वीस वर्ष की थी जब मैं अपने बाप की दौलत का मालिक हुआ। मेरे यहाँ कई लौडियों थी जिनमें से एक लोडी जिसका नाम शिवकुअरी था बहुत ही खूबसूरत और हसीन थी ! मैं उसे बहुत प्यार करता और यही समझता था कि विधाता न भेरे ही लिय उसे इस दुनिया में भजा है और यही सवय था कि मेरी बदौलत उसे गहन कपड की परवाह न थी। 'शिवकुअरी किसी दूसरे शहर या इलाके की रहने वाली थी। हमार यहाँ वह केवल अपनी बूढ़ी मां के साथ आई थी और रहती थी। जब उसकी मा मर गई में बहुत खुश हुआ और शिवकुअरी को अपनी जोरू के समान मानने लगा। हाँ यह कहना मै भूल गया कि शिवकुअरी भी मुझसे मुहच्यत रखती थी और हरदम मरे खुशी के सामान में लगी रहती थी। शिवकुअरी का हाल सुन कर मेरी स्त्री को बडा हीरज हुआ और उसने मुझे यह कह के धमकाया कि अगर तुम इस लोडी को यहाँ से न निकालागे तो मैं विरादरी में तुम्हारी करतूत का हल्ला मचवा दूंगी। मरे लिय यह धमकी बहुत मारी थी क्योंकि मै अपनी बिरादरी कर पच था। शिवकुअरी की मुहब्बत मै किसी तरह कम नहीं कर सकता था। मैं चाहता ता अपनी स्त्री का जहर दिलवाकर तय कर देता मगर ऐसा करन से जब विरादरी वालों को मालूम होता कि मेरी स्त्री मर गई है तय जबर्दस्ती मेरी शादी कर दी जाती जो मुझे मन्जूर न था । मुझ ता शिवकुअरी ही का अपनी औरत बना कर रखना था इसलिये यह कार्रवाई न कर सका, हॉ तीर्थयात्रा का वहाना करके अपनी स्त्री को बाहर ले गया और तब ऐसे ठिकाने खपा आया कि किसी कायर न हुई और तब उस नेक औरत की जगह मैने हरामजादी शिवकुअरी को दे दी। कई तीव ऐसी की गई कि दिरादरी वालों को मेरी औरत के मरने का हाल मालूम नहीं हुआ और वे लोग बिल्कुल न जान सके कि मरे घर में मरी व्याहता पत्नी है या कोई दूसरी। मगर अफसास, थाडे ही दिन बाद कम्बख्त शिवकुँअरी ने जहर उगलना शुरू किया और अपनी बदचलनी का तमाशा अच्छी तरह दिखाया जिसका हाल में आगे चल कर लिखता हूँ। गयाजी से थोड़ी दूर पर अपनी अमलदारी में मैन एक याग और एक मकान बनवाया और उसका नाम ऐशमहल रखकर उसी में शिवकुअरी के साथ खुशी-खुशी दिन बितान लगा। सात वर्ष के अन्दर शिवफुअरी से तीन लडकिया पैदा हुइ । बडी का नाम केतकी मझली का नाम माहिनी और सबसे छोटी का नाम मुलाय रक्या गया। धीरे-धीरे शिवकुअरी की दुरी घालवलनगर दिल में बटझने लगी और मुझे मालूम हो गया कि वह कई नीच लागों से मुहब्बत रखती है जिसका हाल खुलाते तौर पर यहा लिखना पसन्द नहीं करता। 'शिवकुअरी को आजमाने के लिय एक दिन दहात पर दौरे जाने का बहाना कर मैं घर से निकल गया और रात का बेमालूम तौर पर लौट आया। नौकरों में अपने आने की चर्चा न होने दी। सीधा मकान के अन्दर चला गया और सीडी पर धीर-धीरे पैर रख ऊपर की मरातिब को चलाायकायक मरे कानों में किसी के पातयीत की गवाच आईजिसे में अच्छी तरह समझ नहीं सकता था। धीरे-धीरे कदम दवाये हुए ऊपर पहुंचा और कमरे के पात्त जिसका दाजा बन्द था जाकर - नरेन्द्र मोहिनी ११७३