पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१७३

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art सकत। 'इसके साथ ही उन दान आदनियां में से एक ने मुझम डपट के कहा यह न समझा कि तुम सजही में भार अल जाआग तुम्हारी जान बडी तकलीफ स जायेगी। अच्छा देखा में तुम्हें मौत का मजा दिशाता हूँ ! इतना कह कर उन दानो न मुझ मजबूती से पकड़ लिया और घसीटत हुए तइयान में ले जाकर उसन समर हुए मूरत के सामने खड़ा कर दिया जिसका हाल मै ऊपर लिया चुका और जिस में सहयान का दाजा याल कर खुद ही देख आया था। उन दानों ने कहा- दखो एक पंच के घुमान से इस मूरत में इतनी ताकत आ सकती है कि तुम्हे हाथों से अपनी छाती के साथ लमाल और ये सब तज चाकू तुम्हार वदन में घुस जायें। हम लोग एसा कर सक्त है और करेंग कि तुम्हें उभी हालत में जाकर चले जायें और तुम इस मूरत के साथ लग हुए तडफ्तडप कर मर जाओकाई तुम्हार चिल्लान की बाल भी नहीं सुन सकता। अब तुम्हीं साच ला कि अगर तुम मारे जाओगे ता किस नकलीफ से जान जायेगी। 'मैं यह बात सुनकर बदहवास हा गया और थाडी दर तक अपन आप मन रहा लेकिन यकायक मुहर एक जात याद आ गई जिससे भेरी बदहवासी जाती रही और मुझे अपनी जिन्दगी की कुछ-कुछ उम्मीद हो गई। मैने कहा, 'यर, जो कुछ तुम लोग कहोग में वही कलंगा। इतना सुन वे लोग कुछ खुश हुए और मुझे फिर उसी काटड़ा मल आए जहां मैं पहिल था। शिव - अच्छा अब बताओ तुन्हार वाप का लिखा हुआ वसीयतनामा कहाँ है ? उस पान के याद में कागजकलम दावात लेकर तुम्हारे पास आऊगी और तुम दूसरा वसीयतनामा लिख दना, यस फिर तुम छोड दिये जाओगे। में - यह वसीयतनामा मर पुरान खिदमतगार रामदीन के पास है तुम उसस ल लो। शिव - वह मुझे कभी न देगा जब तक कि तुम एक पुर्जा उसके नाम न लिख दाग। में - तुम उस कहना कि वह वसीयतनामा दे दो जिसके साथ तीन सौ तेतीस रूपय तरह अन की थैली तुम्हार सुपुर्द की गई है। शिव-- अगर इतना कहने से भी वह न दे तय? में-तो जो चाहे मेरी सजा करना। शिव - अच्छा आखिर मर कम्ज से निकल कर कहा जाआग । यह भी कर के दखलती हूँ। इसक बाद वतीनों वहा स चले गए और दरवाजा बन्द करत गए। भूख-प्यास मुझ फिर उसी तहखान म रह कर साचने और ख्याल दौडान का मौका मिला। 'मैन साच लिया था कि अगर वसीयतनामा न दूगा ता वशक बेदर्दी के साथ मारा जाऊगा और वसीयतनामा दने और दूसरा लिख दने पर भी य लोग मुझे जीता न छोड़ेगे क्योंकि विना मुझ मार व लाग वसीयतनाम का सुख नहीं भाग सकले यही सोच कर मैन दूसरी चालाको खली थी कि शायद इस तीव स जान बच जाय । ‘रामदीन खिदमतगार मेरे पिता के समय का था। वह बहुत ही नेक हाशियार और दूर अदेश था। मेर पिता उसे बहुत ज्यादा चाहते और मानत थे। अपनी जिन्दगी में मेर पिता ने उसे एक भद समझा रखा था। उस मद अथवा इशार की चौलत कई दफे पिताजी की जान बच चुकी थी क्योंकि भारी जिमींदार और अमीर हान के सवय उनके बहुत से दुरमन थे। वही इशारा रामदीन ने मुझ समझा रक्खा था और ताकीद कर दी थी कि तुम्हारी चालचलन अच्छी नहीं है और मरी नसीहत भी नहीं मानत हा ताज्जुब नहीं कि कभी किसी आफत में फस जाआ। ईश्वर न कर अगर एसा मोका पड़ता तुम भी अपने बाप की तरह हमारे साथ उसी इशारे का बर्ताव करना । वही बात मुझे याद आ गई जिससे जिन्दगी की कुछ उम्मीद हुई और वही तर्कीव मैन की। साथ ही यहा में यह भी लिख देना चाहता हूँ कि रामदीन मरा स्व हाल जान्ता और किसी समय भी मेरी तरफ से यफिक्र नहीं रहता था। 'इतके राद शिवकुअरी और रामदीन से जो पाते हुई और रामदीन ने अपनी कार्रवाई का जो कुछ हाल मुझसे कहा वह लिखता हू- जय मे इलाक पर जाया करता था ता शिवकुअरी अक्सर तीन तीन बारम्बार घण्ट तक सिपदा तीन लडिय'क' साथ ल एशमहल क आस-पास जगल और मैदान में घूमा करती थी। उनकी दफ भी मैं म्गमूली तौर पर इलगकप या हुआ था मगर मर चुपचाप लोटन का हाल किसी का मालूम न हुआ और यकायक शिवरा के जनि प. सस गया। मैने शिवकुअरी को (जब ऐशमहल में रहन लगा था) घाइपर चढ़ना अच्छी तरह मियाया था क्योकि यहा“कान्त म और मण्डलो या बिरादरी स दूर उस घाड पर अपन साथ लकर घूम-फिरन म का हर नही रमत या भरी गैरहाजिरी में शिदर्केअरी घाड पर सवार हा हवा खान के लिए चार गई और तान घर बाद, उसका यह काम रामदोन का बहुत ही बुरा मालूम हुआ सा भी एसी हालत में जय कि वह बराबर ही उस रागनताका और उसमर लिए एक कलक स्मझता था। सुबह के वक्त शिवकुअरी अपने कमर में बैठी कुछ तार रहा यावादी दर बाद उसन- र... काबुलवाया और उस अपने पास बैठाकर इधर-उधर की बातें करने लगी। धाडीटी दरबडी ने दिया कि नरेन्द्र मोहिनी ११७५