पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१७९

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GY चिनियापोत की बनारसी साडी पहिरे एक हसीन और बैठी हुई थी। जिसकी अवस्था अट्ठारह वर्ष से ज्यादे की न होगी। उसकी खूबसूरती और नजाकत की जहाँ तक तारीफ की जाय थोडी है। मगर इस समय उसकी बडी बडी रसीली आँखों से गिरे हुए मोती सरीखे ऑसूकी बूंदें उसके गुलाबी गालों को तर कर रही थी। उसकी दोनों नाजुक कलाइयों में स्याह चूड़ियाँ छन्द और जडाऊ कडे पडे हुए थे बाएँ हाथ से कमरबन्द और दाहिने से उस हसीन नौजवान की कलाई पकडे सिसक-सिसक कर रो रही है जो उसके सामने खडा हसरत भरी निगाहों से उसके चेहरे की तरफ देख रहा है और जिसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह कहीं जाया चाहता है मगर लाचार है किसी तरह उन नाजुक हाथों से अपना पल्ला छुड़ाकर भाग नहीं सकता। उस नौजवान की अवस्था पचीस वर्ष से ज्यादा की न होगी, खूबसूरती के अतिरिक्त उसके चेहरे से बहादुरी और दिलावरी भी जाहिर हो रही थी। उसके मजबूत और गठीले बदन पर चुस्त बेशकीमत पोशाके बहुत ही भली मालूम होती थी। औरत०-नहीं, मै जाने न दूंगी। मर्द०-प्यारी !देखो तुम मुझे मत रोको, नहीं तो लोग ताना मारेंगे और कहेगें कि बीरसिह डर गया और एक जालिम डाकू की गिरफ्तारी के लिए जाने से जी चुरा गया। महाराज की आँखों से भी मै गिर जाऊँगा और मेरी नेकनामी में धव्या लग जायेगा। औरत०-वह तो ठीक है मगर क्या लोग यह न कहेंगे कि तारा ने अपने पति को जानन्यूझ कर मौत के हवाले कर दिया? बीर०-अफसोस 'तुम वीर-पत्नी होकर ऐसा कहती हो? तारा०-नहीं नहीं मैं यह नहीं चाहती की आपके वीरत्व में धब्बा लगे बल्कि आपकी बहादुरी की तारीफ लोगों के मुँह से सुनकर मैं प्रसन्न हुआ चाहती हूँ, मगर अफसोस आप उन बातों को फिर भी भूल जाते है जिनका जिक्र में कई दफे कर चुकी हूँ और जिनके सबब से मैं डरती हूँ और चाहती हूँ कि अपने साथ मुझे भी ले चल कर इस अन्याई राजा के हाथ से मेरा धर्म यचावें। इसमें कोई शक नहीं कि उस दुष्ट की नीयत खराब हो रही है और यही सबब है कि वह आपको एक एसे डाकू के मुकायल में भेज रहा है जो कभी सामने होकर नहीं लडता वल्कि छिपकर लोगों कि जान लिया करता वीर०-कुछ देर सोच कर) जहाँ तक मै समझता हूँ जब तक तुम्हारे पिता सुजनसिह मौजूद है तुम पर किसी तरह का जुल्म नहीं हो सकता तारा०-आपका कहना ठीक है मगर मुझे अपने पिता पर बहुत कुछ भरोसा है मगर जब उस 'कटोरा मर खून' की तरफ ध्यान देती हूँ जिसे मैंने अपने पिता के हाथ में देखा था तब उनकी तरफ से भी नाउम्मीद हो जाती हूँ और सिवाय इसके कोई दूसरी बात नहीं सूझती कि जहाँ आप रहें मैं भी आपके साथ रहूँ और जो कुछ आप पर बीते उसमें से आधे की हिस्सेदार बनू वीर०-तुम्हारी बातें मेरे दिल में खुपी जाती है और मै यही चाहता हूँ कि महाराज की आज्ञा न भी हो तो भी तुम्हें अपने साथ लेता चलूँ मगर उन लोगों के ताने से शर्माता और डरता हूँ जो सिर हिलाकर कहेंगे कि लो साहब बीरसिह जोरू को साथ लेकर लड़ने गये हैं ! ताराo-ठीक है इन्हीं बातों को सोचकर आप मुझ पर ध्यान नहीं देते और मेरे उस बाप के हवाले किये जाते है जिसक हाथ में उस दिन खून स भरा हुआ चॉदी का कटोरा (कॉपकर) हाय हाय 'जब वह वात याद आती है,कलेजा कॉप उठता है यचारी कैसी खूबसूरत ओफ ॥ वीर०-ओफ बडा ही गजब है वह खून तो कभी भूलने वाला नहीं मगर अव हो भी तो क्या हो ? तुम्हारे पिता लाचार थे किसी तरह इनकार नहीं कर सकते थे (कुछ सोचकर) हो खूब याद आया, अच्छा सुनो एक तर्कीब सूझी है। यह कह कर बीरसिंह तारा के पास बैठ गए और धीरे-धीरे बातें करने लगे। उधर अगूर की टट्टियों में छिपा हुआ आदमी जिसके बारे में हम इस बयान के शुरू में लिख आए है इन्हीं की तरफ एकटक देख रहा था। यकायक पत्तों की खडखडाहट और पैर की आहट ने उसे चौंका दिया। वह हाशियार हो गया और पीछे फिर कर देखने लगा एक आदमी को अपने पास आते देख कर धीरे से गोला "कौन है, सुजनसिंह ?' इसके जवाब में हों की आवाज आई और सुजनसिंह उस आदमी के पास जाकर धीरे से बोला, “भाई रामदास अगर तुम वीरेन्द्र वीर ११८१