पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१८७

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Get ठीक है तू क्योंकर जान सकता है कि मैं कौन हूँ ? अगर जानता तो मुझसे झूठ कभी न बोलता । मै बोली ही से तुझे पहचान गया कि तू बीरसिंह का आदमी नहीं बल्कि उस येईमान राजा करनसिह का नौकर है जो एक भारी जुल्म और अधर करने पर उतारू हुआ है। तेरा नाम बच्चनसिह है। मै तुझे अभी इस झूठ बोलने की सजा देता और जान से मार डालता मगर नहीं तेरी जुबानी उस वेईमान राजा को एक सदेसा कहला भेजना है, इसलिए छोड़ देता हूँ। सुन और ध्यान देकर सुन मेरा नाम नाहरसिह है मेरे ही डर से तेरे राजा की जान सूखी जाती है मेरे ही नाम से यह हरिपुर शहर कॉप रहा है और मुझी को गिरफ्तार करने के लिए तेरे वेईमान राजा ने वीरसिह को हुक्म दिया था लेकिन वह जाने भी न पाया था कि वेचारे को झूठा इलजाम लगाकर गिरफ्तार कर लिया (मोहर का डिब्बा बच्चनसिह के हाथ से छीनकर) राजस कह दिजियो कि मोहर का डिब्या नाहरसिह ने छीन लिया तू नाहरसिह को गिरफ्तार करने के लिए वृथा ही फौज भेज रहा है न मालूम तेरी फौज कहाँ जायेगी और किस जगह उसे ढूँढगी वह तो हरदम इसी शहर में रहता है देख सम्हल घेट अब तेरी मौत आ पहुची, यह न समझियो कि 'कटोरा भर खून का हाल नाहरसिह को मालूम नहीं है । बच्चन०-कटोरा मर खून कैसा? नाहर०-(एक मुक्का जमा कर) एसा !तुझे पूछन से मतलब जो मैं कहता हूँ जाकर कह दे और यह भी कह दीजियो कि अगर बन पड़ा और फुरसत मिली तो आज के आठवें दिन सनीचर को तुझसे मिलूंगा। बस जा-हाँ एक बात और याद आई, कह दीजियो कि जरा कुँअर साहब को अच्छी तरह यन्द करके रक्खें जिसमें भण्डा न फूटे । नाहरसिंह डाकू ने बच्चन को छोड दिया और मोहर का डिब्बा लेकर न मालूम कहाँ चला गया। नाहरसिंह के नाम से बच्चन यहाँ तक डर गया था कि उसके चले जाने के बाद भी घण्टे भर तक वह अपने होश में न आया। बच्चन क्या इस हरिपुर में कोई भी ऐसा नहीं था जो नाहरसिंह डाकू का नाम सुन कर कॉप न जाता हो। थोड़ी देर बाद जब बच्चनसिह के होश हवाश दुरूस्त हुए वहाँ से उठा और राजमहल की तरफ रवाना हुआ। राजमहल यहाँ से बहुत दूर था तो भी आध कोस से कम भी न होगा।दोधण्टे से भी कमरात बाकी होगी जब बच्चनसिह राजमहल की कई ड्योढिया लॉधता हुआ दीवानखाने में पहुंचा और महाराज करनसिंह के सामने जाकर हाथ जोडखडा हो गया।इस सजे हुए दीवानखाने में मामूली रोशनी हो रही थी महाराज किमखाब की ऊँची गद्दी पर जिसके चारों तरफ मोतियों की झालर लगी हुई थी विराज रहे थे दो मुसाहब उनके दोनों तरफ बैठे थे सामने कलम दावात कागज और कई वन्द कागज के लिखे हुए और सादे भी मौजूद थे। इस जगह पर पाठक कहेंग कि महाराज का लडका मारा गया है,इस समय वह सूतक में होंगे, महाराज पर कोई निशानी गम की क्यों नहीं दिखाई पडती? इसके जवाब में इतना जरूर कह देना मुनासिब है कि पहिले जो गद्दी का मालिक होता था प्राय वह मुर्दे को आग नहीं देता था और न स्वय क्रिया कर्म करने वालों की तरह सिर मुडा अलग बैठता था अब भी कई रजवाडौं में ऐसा दस्तूर चला आ रहा है इसके अतिरिक्त यहाँ तो कुँअर साहब के मरने का मामला विचित्र था। जिसका हाल आगे चल कर मालूम होगा। बच्चन ने झुक कर सलाम किया और हाथ जोड सामन खडा हो गया। नाहरसिह डाकू के ध्यान से डर के पारे अभी तक कॉप रहा था। महा०-मोहर लाया? बच्चन०-जी लाया तो था मगर राह में नाहरसिंह डाकू ने छीन लिया। महा०-(चोक कर) नाहरसिंह डाकू ने !! बच्चन-जी हॉ। महा०-क्या आज वह इसी शहर में आया है ? बच्चन-जी हॉ बीरसिंह के बाग में मुझे मिला था। महाo-साफ साफ कह जा क्या हुआ? बच्चन ने वीरसिह के तोशेखाने से मोहर लेकर चलने का और उसी बाग में नाहरसिह के मिलने का हाल पूरा-पूरा कहा। जब वह सदेशा कहा जो डाकू ने महाराज को दिया था तो थोड़ी देर के लिए महाराज चुप हो गए और सोचने लगे आखिर एक ऊँची सॉस लेकर बाले- महा०-यह शैतान डाकू न मालूम क्यों मेरे पीछे पड़ा है और किसी तरह गिरफ्तार भी नहीं होता। मुझे बीरसिंह की वीरेन्द्र वीर ११८९