पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

lagi वीर०-(ताज्जुब से) क्या मेरी कोई बहन भी है ? नाहर०-हॉ है मगर अब ज्यादा बातचीत करने का मौका नहीं है। उठो और मेरे साथ चलो, देखो ईश्वर क्या करता . बीर०-करनसिह ने वह चीठी जिसके पास भेजी थी उसे क्या आप जानते है ? नाहर०-हॉ मैं जानता हूँ, वह भी वडा ही हरामजादा और पाजी आदमी है पर जो भी हो मेरे हाथ से वह भी नहीं बच सकता। दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए और लगभग आध कोस जाने के बाद एक पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचे जहाँ दो साईस दो कसे कसाये घोड़े लिए मौजूद थे। नाहरसिह ने वीरसिह से कहा, अपने साथ तुम्हारी सवारी का भी वन्दोदबस्त करके मैं तुम्हें छुड़ाने के लिए गया था लो इस घोड़े पर सवार हो जाओ और मेरे साथ चलो।' दर्दानों आदमी घोडो पर सवार हुए और तेजी के साथ नैपाल की तराई की तरफ चल निकले। ये लोग भूखे-प्यासे पहर भर दिन बाकी रहे तक बराबर घोडा फेंके चले गए। इसके बाद एक घने जगल में पहुंचे और थोडी दूर तक उसमें जाकर एक पुराने खण्डहर के पास पहुँचे । नाहरसिंह ने घोडे से उतर कर बीरसिह का भी उतरने के लिए कहा और बताया कि यही हमारा घर है। यह मकान जो इस समय खण्डहर मालूम होता है पाँच छ बिगहे के घेरे में होगा। खराब और बर्वाद हो जाने पर भी अभी तक इसमें सौ सवा सौ आदमियों के रहने की जगह थी। इसकी मजबूत चौड़ी और सगीन दीवारों से मालूम होता था कि इसे किसी राजा ने बनवाया होगा और येशक यह किसी समय में दुलहिन की तरह सजाकर काम में लाया जाता होगा। इसके चारों तरफ की मजबूत दीवारे अभी तक मजबूती के साथ खड़ी थी हा भीतर की इमारत खराब हो गई थी तो भी कई कोठरियाँ और दालान दुरूस्त थे जिनमें इस समय नाहरसिह और उसके साथी लोग रहा करते थे। वीरसिह ने यहाँ लगभग पचास बहादुरों को देखा जो हर तरह से मजबूत और लड़ाके मालूम होते थे । बीरसिंह को साथ लिए हुए नाहरसिह उस खण्डहर में घुस गया और अपने खास कमरे में जाकर उन्हें पहर भर तक आराम करके सफर की हरारत मिटाने के लिए कहा। सातवां बयान दूसरे दिन शाम को खण्डहर के सामने घास की सब्जी पर बैठे हुए वीरसिह और नाहरसिंह आपुस में बातें कर रहे है। सूर्य अस्त हो चूका है सिर्फ उसकी लालिमा आसमान पर फैली हुई है। हवा के झोंके बादल के छोटे-छोटे-टुकड़ो को आसमान पर उडाये लिए जा रहा है। अंडी-ठडी हवा जगली पत्तों को खड़खड़ाती हुई इन दोनों तक आती और हर खण्डहर की दिवार से टक्कर खाकर लौट जाती है। ऊँचे-ऊँचे सलई के पेड़ों पर बैठे हुए मोर आवाज लडा रहे है। और कभी-कभी पपीहे की आवाज भी इन दोनों के कानों तक पहुँच कर समय की खूबी और मौसम के बहार का सन्देसा दे रही है। मगर ये चीजे वीरसिह और नाहरसिह को खुश नहीं कर सकती। वे दोनों अपनी धुन में न मालूम कहाँ पहुंचे हुए और क्या सोच रह है यकायक वीरसिह ने चौक कर नाहरसिह से पूछा बीर०-खैर जो भी हो आप उस करनसिह का किस्सा तो अब अवश्य कहें जिसके लिए रात वादा किया था। नाहर०-हाँ सुनो मैं कहता हूँ क्योंकि सबके पहिले उस किस्से का कहना ही मुनासिब समझता हूँ। करनसिंह का किस्सा पटने का रहने वाला एक छोटा सा जमीदार जिसका नाम करनसिंह था थोडी सी जमींदारी में खुशी के साथ अपनी जिन्दगी बिताता और बाल बच्चों में रह कर सुख भोगता था। उसके दो लडके थे और एक लड़की । हम उस समय का हाल कहत है जब उसके बड लडके की उम्र बारह वर्ष की थी। इत्तिफाक से दो साल की बर्सात बहुत खराब बीती और करनसिह के जमींदारी की पैदावार बिल्कुल ही मारी गई। राजा की मालगुजारी सिर पर चढ गई जिसके अदा होने की सूरत न बन पडी। वहाँ का राजा बडा ही सॅगदिल और जालिम था, उसने मालगुजारी में से एक कौडी भी माफन की और न अदा करने के लिए कुछ समय ही दिया। करनसिह की बिल्कुल जायदाद जब्त कर ली गई। जिससे वह बेचारा हर तरफ से तबाह और बर्वाद हो गया। करनसिह का एक गुमाश्ता था जिसको लोग करनसिंह राठू या कभी-कभी सिर्फ रातू कह कर पुकारते थे। लाचार होकर करनसिंह ने स्त्री का जेवर बेच पाँच सौ रुपये का सामना किया। उसमें से तीन