पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/१९४

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कर जख्मी करके एक कूए में डाल देने के बाद खुद हरिपुर की तरफ रवाना हुआ । रास्त में उसने बहुत दिन लगाये जिसमें करनसिंह सेनापति का छोटा लड़का उससे हिल-मिल जाय। हरिपुर में पहुंचकर उराने सहज ही वहाँ अपना दखल जमा लिया। करनसिह सेनापति के लड़के और लड़की को थोड़ दिन तक अपना लड़का लड़की मशहूर करने के बाद उसने एक दोस्त का लड़का और लड़की मशहूर किया। उसके एसा करने से रियाआ के दिल में कुछ शक पैदा हुआ मगर 4६ कुछ न कर सकी क्या कि करनसिंह साल में पांच छ मरतये अछ-अच्छे तोहफ नपाल भेजकर वहा के राजा को अपना महरवान बनाये रहा यहा तक कि कुछ दिन याद नपाल का राजा जिसने करनसिह को हरिपुर की सनद दी थी परलोक सिधारा और उसका भतीजा गद्दी पर बैठा। तब से करनसिंह राठू और भी निश्चिन्त हो हरिपुर गया और रिआया पर जुल्म करने लगा। यही कारनसिंट राहू आज हरिपुर का राजा है जिसके पज में तुम फंसे हुए थे। कहो ऐसे नालायक राजा के साथ अगर मै दुश्मनी करता हूँ ता क्या युरा करता हूँ? चीर०-(कुछ देर चुप रहने के याद) बेशक वह बड़ा मप्रकार और हरामजादा है। एसो के साथ नकी करना तो मानों नेकों के साथ वदी करना है। नाहर०-वेशक ऐसा ही है। वीर०-मगर आपने यह नहीं कहा कि अव करनसिंह सेनापति के लड़के कहाँ है और क्या कर रहे है? नाहर०-क्या इस भेद को भी में अभी खाल दू? वीरo-bf. सुनने को जी चाहता है। नाहर०-करनसिह सेनापति के छाटे लडफ तो तुम ही हो मगर तुम्हारी यहिन का हाल मालूम नहीं । पारसाल तक तो उसकी खबर मालूम थी मगर इधर साल भर से न मालूम वह मार डाली गई या कहीं छिपा दी गई। इतना सुनकर धीरसिह रान लगा, यहाँ तक कि हिचकी बध गई। नाहरसिहन बहुत समझाया और दिलासा दिया ! थोडी देर बाद वीरसिह ने अपने को संभाला और फिर बातचीत करने लगा। वीर०-मगर तुम ने तो कहा था कि तुम्हारी उस यहि से मिलायेंगे जिसके बदन में सिवाय हड्डी के और कुछ नहीं रह गया है। क्या वह मेरी बहिन है जिसका हाल ऊपर के हिस्स में कह गए है। नाहर०-वेशक वही है। वीर०-फिर आप कैसे कहत है कि साल भर से उसका पता नहीं है? नाहर०-यह इस सवव स कहता हूं कि उसका ठीक पता मुझे मालूम नहीं है, उडती सी खबर मिली थी कि वह किले ही के किसी तहखाने में छिपाई गई है और सख्त तकलीफ में पड़ी है। मैं कल किले में जाकर उसी भेद का पता लगाने वाला था मगर तुम्हारे ऊपर जुल्म होने की खबर पाकर यह काम न कर सका और तुम्हारे छुड़ाने के बन्दोबस्त में लग गया। चीर०-उसका नाम क्या है? नाहर०-सुंदरी। धीर०-तो आपको उम्मीद है कि उसका पता जल्द लग जायगा? नाहर०-अवश्या वीर०-अच्छा अब मुझे एक वात और पूछना है। नाहर०-वह क्या? वीर०-आप हम लोगों पर इतनी मेहरवानी क्यों कर रहे है और हम लोगेंके सबब राजा के दुश्मन क्यों बन बैठे है? नाहर०-(कुछ सोचकर) खैर इस भेद को भी छिपाये रहना अब मुनासिब नहीं है। उठो, मै तुम्हें अपने गले लगाऊँ तो कहूँ। (वीरसिंह को गले लगाकर) तुम्हारा बड़ा भाई में ही हू जिसे रातू ने जख्मी कर कुए में डाल दिया था। ईश्वर ने मेरी जान बचाई और एक सौदागर के काफिले को वहाँ पहुचाया जिसने मुझे कुए से निकाला । असल में मेरा नाम विजयसिह है। राजा से बदला लेने के लिए इस ढग से रहता हूँ।मै डाकू नहीं है, सिवाय राजा के किसी को दुख भी नहीं देता केवल उसी की दोलत लूट कर अपना गुजारा करता हूँ। वीरसिह को भाई के मिलने की खुशी हद से ज्यादा हुई और घड़ी-घड़ी उठफर कई दफे उन्हें गले लगाया। थोड़ी देर और यातचीत करने के बाद दोनों उठकर खडहर में चले गये और अब क्या करना चाहिए यह सोचने लगे। - देवकीनन्दन खत्री समग्र ११९६