पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२२८

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हो रही है । चाँदी इस समय बड़े प्रम स नौजवान की तरफ झुकी हुई बातें कर रही है। नोजवान - मैं तुम्हारे सर की कसम खा कर कहता हू, क्योंकि इस दुनिया में मैं तुमसे बढ कर किसी को नहीं मानता। चॉदी-(एक लम्बी सॉस लेकर ) हम लोगों के यहाँ जितने आदमी आते है सभी लम्बी-लन्धी कसमें खाया करते है मगर मुझको उन कसमों की कुछ परवाह नहीं रहती, परन्तु तुम्हारी कसमें मेरे कलेजे पर लिखी जाती है क्योंकि मैं तुम्हें सच्चे दिल से प्यार करती है। नौजवान-यही हाल मेरा है। मुझे इस बात का खयाल हरदम बना रहता है कि बाप मी भाई बेरादर देवता धर्म सबसे बिगड़ जाय मगर तुमसे किसी तरह कभी बिगड़ने या झूठ बोलने की नौबत न आवे। सच तो यह यों है कि में तुम्हारे हाथ विक गया हू बल्कि अपनीखुशी ओर जिन्दगी को तुम्हार ऊपर न्यौछावर कर चुका हूँ और केवल तुम्हारा ही भरोसा रखता हूँ। देखो अवकी दफे मेरी माँ सचमुच मेरी दुश्मन हो गई मगर मैने उसका कुछ भी खयाल न किया हाथ लगी रकम के लौटाने का इरादा भी मन में न आने दिया और तुम्हारी खातिर यहाँ तक ला ही के छोड़ा । अभी तो में कुछ कह नहीं सकता,हॉ अगर ईश्वर मेरी सुन लेगा और तुम्हारी मेहनत ठिकाने लग जायेगी तो मै तुम्हें भालामाल कर दूगा। बॉदी-मै तुम्हारी ही कसम खा कर कहती हूँ कि मुझे धन-दौलत का कुछ भी ययाल नहीं है। मैं तो केवल तुमको चाहती हूँ और तुम्हारे लिए जान तक देने को तैयार हूँ, मगर क्या करू मेरी अम्मा बड़ी चाडालिन है। वह एक दिन भी मुझे रुलाए बिना नहीं रहती। अभी कल ही की यात है कि दोपहर के समय में इसी बॅगले में बैठी हुई तुम्हें याद कर रही थी. खाना-पीना कुछ भी नहीं किया था, चार-पाच दफे अम्मा कह चुकी थी मगर मैंने पेट-दद का बहाना करके टाल दिया था इत्तिफाक से न मालूम कहाँ का मारा-पीटा एक सर्दार आ पहुंचा और अम्माजान का यह जिद्द हुई कि में उसके पास अवश्य जाऊँ जिसे उन्होंने बड़ी खातिर से नीचे वाले कमरे में बैठा रक्खा था।मगर मुझे उस समय सिवाय तुम्हारे ख्याल के और कुछ अच्छा ही नहीं लगता था इसलिए में यहाँ बैठी रह गई नीचे न उतरी, बस अम्मा एक दम यहाँ चली आई- और मुझे हजारों गालियों देने लगी और तुम्हारा नाम ले लेकर कहने लगी कि पारसनाथ आयेंगे तो रात-रात भर बैठी बात - किया करेगी और जय कोई दूसरा सार आकर बैठेगा तो उसे पूछेगी मी नहीं ! आखिर घर का खर्च कैसे चलेगा ? इत्यादि बहुत कुछ बक गई मगर मैने वह चुप्पी साधी कि सर तक न उठाया। आखिर बहुत बक-झक कर चली गई। फिर यह भी न मालूम हुआ कि अम्मा ने उस सर्दार को क्या कह कर विदा किया या क्या हुआ ! एक दिन की कौन कहे रोजही इस तरह की खटपट हुआ करती है। पारस-खैर थोड़े दिन और सत्र करो फिर तो मैं उन्हे ऐसा खुश कर दूंगा कि वह भी याद करेंगी। मेरे चाचा की आधी जायदाद भी कम नहीं है अस्तु जिस समय वह तुम्हें बेगमों की तरह ठाठबाट से देखेंगी और खजाने की तालियों का झव्या अपनी करधनी से लटकता हुआ पावेंगी,उस समय उन्हें बोलने का कोई मुंह न रहेगा दिनरात तुम्हारी बलाएँ लिया करेंगी। बाँदी-तब भला वह क्या करने लायक रहेंगी और आज भी वह मेरा क्या कर सकती है? अगर बिगड़कर खडी हो जाउँ तो उनके किये कुछ भी न हो, मगर क्या करूँ लोकनिन्दा से डरती हूँ। पारस-- नहीं नहीं, ऐसा कदापि न करना | मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी किसी तरह की बदनामी हो और सर्दार लोग तुम्हारी दिठाई की घर-घर में चर्चा करें। अब भी मैने तुम्हें रत्ती भर तकलीफ होने न दूंगा और तुम्हारे घर का खर्चा किसी न किसी तरह जुटाता ही रहूंगा। यादी- नहीं जी मैं तुम्हें अपने खर्चे के लिए भी तकलीफ देना नहीं चाहती, मै इस लायक हूँ कि बहुत से सर्दारों को उल्लू बनाकर अपना खर्च निकाल लें। मैं तुमसे एक पैसा लेने की नीयत नहीं रखती, मगर क्या करूँ अम्मा के मिजाज से लाचार हूँ इसी से जो कुछ तुम देते हो ले लेना पडता है। अगर उनके हाथ में मै यह कह कर कुछ रूपै नदूं कि पारस बाबू ने दिया है तो वे बिगड़ने लगती है कि ऐसे सर्दार का आना किस काम का जो बिना कुछ दिए चला जाय ! मैने तुमसे अभी तक इस बात को साफ-साफ नहीं कहा, आज जिक्र आने पर कहती हूँ उन्हें खुश करने के लिए मुझे बड़ी तरकीचे करनी पड़ती है। और सर्दारों से जो कुछ मुझे मिलता है उसका पूरा-पूरा हाल तो उन्हें मालूम हो ही नहीं सकता इससे उन रकमों में से मैं बहुत कुछ बचा सकती हूँ। जिस दिन तुम बिना कुछ दिये चले जाते हो उस दिन अपने पास से उन्हें कुछ दे कर तुम्हारा दिया हुआ बता दती हूँ यही सबब है कि वह ज्यादे ची-चपड नहीं कर सकतीं। पारस-- यह तो मै अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम मुझे जी-जान से चाहती हो और मुझ पर मेहरबानी रखती हो मगर क्या करूँ लाचार हूँतो भी इस बात की कोशिश करूँगा कि जब तुम्हारे यहाँ आऊँ तुम्हारे वास्ते कुछ न कुछ जरूर लेता आऊँ। बॉदी-अजी रहो भी तुम तो पागल हुए जाते हो। इसी से मै तुम्हें सब हाल नहीं कहती थी। जब मैं उन्हें किसी न किसी तरह खुश कर ही लेती हूँ तो फिर तुम्हें तरदुद करने की क्या जरूरत है ? देवकीनन्दन खत्री समग्र १२३०