पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२४०

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हो, अथवा जिस बात से लज्जा को कुछ भी सम्बन्ध हो अर्थात् जिसके कहने से लज्जित होना पड़े उसके विषय में समझ रक्खो कि शास्त्र में कहीं न कहीं उसकी मनाही जरूर लिखी होगी। अस्तु भर स्वार्थों भाई. इस विषय में तुम मुझे कुछ भी नहीं समझा सकते. क्योंकि मैं अपनी गाटा की इस बात को आजा बल्कि उनकी सब बातों को 'वेद-वाक्य के बराबर समझती हूँ। पारस- (कुछ लज्जित होकर) अब तुम्हारी इन लड़कपन की सी बातों का में कहा तक जवाब दू? और जब तुम मुझी को स्वार्थी कह कर पुकारती हो तो अब तुम्हें किसी तरह का उपदेश करना भी व्यर्थ ही है। सरला -- नि सन्देह ऐसा ही है, अब इस समय में तुम मुझे कुछ भी समझाने-बुझान का उध्योग न करो। जो कुछ समझना था मैं समझ चुकी और जो कुछ निश्वय करना था उसे में निश्चय कर चुकी। पारस - (लज्जा और निराशा के साथ ) खैर अब मुझे तुम्हारे हृदय की कठोरता का हाल मालूम हो गया और निश्चय हो गया कि तुम्हें किसी को साथ मुहब्बन नहीं है और न किसी की जाने की ही परवाह है। सरला-ठीक है, अगर तुम उस ढग और कहने पर नहीं समझे तो इस दूसरे ढग से जरूर समझ जाओगे कि जब मुझे अपनी ही जान प्यारी नहीं है तो दूसरे की जान का खयाल कब हो सकता है ? पारस -- अच्छा तब में अपनी जान से मो हाथ धो लेता हूँ और माह देता है कि इस विषय में अब एक शब्द भी मुह से न निकालूंगा। सरला - केवल इसी विषय में नहीं बल्कि मेरे किसी विषय में भी अब तुम्हें बोलना न चाहिए क्योंकि मैं तुम्हारी मार्ग सुनना नहीं चाहती। इतना कह कर सरला पारसनाथ से कुछ दूर हट कर जा बैठी और चुप हो गई। पारसाथ की आयों में क्रोध की लाली दिखाई देने लगी मगर सरला को कुछ कहने या समझाने की उसकी हिम्मत 7 पड़ी। थोड़ी देर के बाद पुन उस कोठरी का दर्वाजा खुला और एक नकाबपोश ने कोठरी के अन्दर आकर दानों कैदियों से पूछा, क्या तुम लोगों को किसी चीज की जरूरत है। इसके जवाब में सरला ने तो कहा, "हाँ, मुझे मौत की जरूरत है।" और पारसनाथ ने कहा, "मैं पायखाने जाया चाहता हूँ। वह आदमी पारसनाथ को लेकर कोठरी के बाहर निकल गया और कोटरी का दर्वाजा पुन पाहिले की तरह बद हो . म गया। नौवां बयान इस समय हम बॉदी को उसके मकान में छत के ऊपर पाली उसी कोतरी में अकेली बैठी हुई देयते है जिसमें दो दफे पहिले भी उसे पारसनाथ और हरनन्दन के साथ देख चुके है। हम यह नहीं कह सकते कि उसके बाद पारसनाथ और हरनन्दन बाबू का आना इस मकान में दो दफे हुआ, हाँ इसमें कोई शक नहीं कि उसके बाद भी उन लोगों का आना यहाँ जरूर हुआ, मगर हम उसी जिकू को लिखेंगे जिसमें कोई खास बात होगी। बादी अपने सामने पानदान रक्खे हुए धीरे-धीरे पान लगा रही है और कुछ सोचती भी जाती है। दो ही चार बीड़े भान के उसने खाए होंगे कि लोडी ने खबर दी कि पारसनाथ आए है, बड़ी बीबी उन्हें बरामदे में रोक कर बातें कर रही है। इतना सुनते ही बोंदी ने लौडी को तो चले जाने का इशारा किया और युद पानदान को किनारे कर एक पारीक चादर से मुँह लपेट सो रही। जब पारसनाथ उस कोठरी में आया तो उसने बादी को ऊपर लिखी हालत में पाया धुपचाप उसके पास बैठ गयया और धीरे-धीरे उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा। बॉदी-(लेटे ही लेटे ) कौन है ? पारस- तुम्हारा एक ताबेदार ! बाँदी-( उठ कर ) वाह वाह. मैं तो तुम्हारा ही इन्तजार कर रही थी। पारस -- पहिले यह तो बताओ कि आज तुम्हारा चेहरा इतना सुस्त और उदास कयों है ? बाँदी ~ कुछ नही. यों ही बेवक्त सो रहने से ऐसा हुआ होगा। पारस- नहीं नहीं. तुम मुझे धोखा देती हो, सच बताओ क्या बात है? बांदी--का तो युकी और क्या बताऊँ ? तुम तो वाहमखाह की हुज्जत निकालते हो और यों ही शक करते हो। पारस - बस बस, रहने भी दो, मुझसे बहाना न करो, जो कुछ है वह मै तुम्हारी अम्मा से सुन चुका हूँ। याँदी- (कुछ भौहें सिकोड़ कर ) जब सुन ही चुके हो तो फिर मुझसे क्या पूछते हो? पारस - उन्होंने इतना खुलासा नहीं कहा जितना मैं तुम्हारी जुनान से सुना चाहता हूँ। देवकीनन्दन खत्री समग्र १२४२