पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२४७

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हरनन्दन - यह तो काई मुश्किल नहीं है में एक चिट्ठी ऐसी लिख दूगा जिसे देखते ही सरला का दिल भी मरी तरफ से खट्टा हो जायेगा और उसमें बादी-वस वस मैं आपका मतलब समझ गई वेशक ऐसा करने से मामला ठीक हो जायेगा (कुछ सोचकर) मगर कम्बख्त इमामी को लालच हद से ज्यादे है। हरनन्दन - काई चिन्ता नहीं जो कुछ कहोगी उस द दूगा। और फिर उसे चाह जो कुछ दिया जाय मगर इसमें काई शक नहीं कि अगर यह काम मेरी इच्छानुसार हो जायेगा ता मै तुम्हें दस हजार रुपये नकद दूगा और अपने को तुम्हारे हाथ पिका हुआ समझूगा । वादी-(मुहब्बत से हरनन्दन का हाथ पकड क ) जहा तक होगा मै तुम्हारे काम में काशिश करूँगी। मुझे इस बात की लालच नहीं है कि तुम मुझे दस हजार रुपये दोगे। तुम मुझे चाहते हा मेरे लिये यही बहुत है। जब कि मैं अपने को तुम्हारी मुहन्त पर न्यौछावर कर चुकी है, तब भला मुझ इस बात की ख्वाहिश कव हो सकती है कि तुमसे रुपये वसूल कल2 (लम्बी सासें ले कर ) अफसोस कि तुम मुझे आज भी वैसा ही समझते हो जैसा पहिले दिन समझे थे। इतना कह कर बादी नखरे में दो चार बूंद आसू की बहा कर आचल स आख पोंछने लगी। हरनन्दन न भी उसक गले में हाथ डालकर कसूर की नाफी मागी और एक अनूठ ढग त उसे प्रसन्न करने का विचार किया। इसके बाद क्या हुआ सो कहन की काई जरूरत नहीं ! बस इतना ही कहना काफी है कि हरनन्दन दो घण्टे तक और वेठ तथा इसके बाद उन्होंने अपन घर का रास्ता लिया। ग्यारहवां बयान अब हम थाडा सा हाल लालसिह के घर का क्यान करते है। लालसिह का घर से गायब हुए आज तीन या चार दिन हो चुके हैं। न तो व किसी से कुछ कह गये है और न कुछ यता ही गये है कि किसके साथ कहा जाते है और कब लौटकर आयेंगे। अपने साथ कुछ सफर का सामान भी नहीं ले गय जिससे किसी तरह की दिलजमयी होती और यह समझा जाता कि कहीं सफर में गये है काम हा जाने पर लौट आवर्ग। वह तो रात के समय यकायक अपने पलग से गायब हो गये और किसी तरह का शक भी न होने पाया। न तो पहरवाला किसी तरह का शक जाहिर करता है। सबके सब तरददुद और परेशानी में पडे है तथा ताज्जुब के साथ एक दूसरे का मुंह दखते है। इसी तरह पासरनाथ भी परेशान चारों तरफ घूमता है और अपने चाचा का पता लगाने की फिक्र कर रहा है। उसने भी लालसिह की तलाश में कई आदमी भजे हैं मगर उसका यह उद्याग चचा की मुहब्बत के खयाल से नहीं है बल्कि इस खयाल से है कि कहीं यह कार्रवाई भी किसी चालाकी के खयाल सेन की गई हो। वह कई दफे अपनी चाची के पास गया और हमदर्दी दिखाकर तरह तरह के सवाल किए मगर उसकी जुबानी भी किसी तरह का पता न लगा बल्कि उसकी चाची ने उसे कई दफ कहा कि बेटा तुम्हारे एसा लायक भतीजा भी अगर अपने चाचा का पता न लगादगा ता और किससे ऐसे कठिन काम की उम्मीद हो सकती है? इस तरदुद और दौडधूप में चार दिन गुजर गये मगर लालसिह के बारे में किसी तरह का कुछ भी हाल न मालूम हुआ। सध्या का समय है और लालसिह के कमरे के आगे वाल दालान में पारसनाथ एक कुर्सी पर बैठा हुआ सोच रहा है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होती और मिटती है और एक तौर पर वह गम्भी र चिन्ता में डूबा हुआ मालूम पडता है। इसी समय अकस्मात एक परदशी आदमी ने उसके सामने पहुंच कर सलाम किया और हाथ में एक चिटठी देकर किनार खड़ा हो गया। हाथ-पैर और सूरत-शक्ल देखने से मालूम हाता था कि वह आदमी कहीं बहुत दूर से सफर करता हुआ आ रहा है। पारसनाथन लिफाफे पर निगाह दौडाईजो उसी के नाम का लिखा था। अपने चचा के हाथ के अक्षर पहिचान कर चौक पडा और व्याकुलता के साथ चिटठी खोल कर पढने लगा। उसमें यह लिखा हुआ था- चिरजीव पारसनाथ योग्य लिखी लालसिह की आसीस। अपनी राजी खुशी का हाल लिखना तो अब व्यर्थ ही है हा ईश्वर से तुम्हारा कुशल-क्षेम मनाते हैं। वेशक तुम लोग ताज्जुय और तरदूद में पडे होवोगे और मेरे यकायक गायब हो जाने से तुम लोगों को रज हुआ होगा मगर मै क्या कर । अपन दिली उलझनों से लाचार हाकर मुझे ऐसा करना पड़ा। सरला के गायब होने और हरनन्दन की ऐयाशी ने मेरे दिल पर गहरी चोट पहुंचाई। अब मैं गृहस्थ-आश्रम में रहना और किसी को अपना मुँह दिखाना पसन्द नहीं करता इसलिए बिना किसी से कुछ कहे सुने चुपचाप यहाँ चला आया और आज इस आदमी के सामने ही सिर मुडा सन्यास ले लिया है। अब मुझे न तो गृहस्थी से कुछ सरोकार रहा और न अपनी मिल्कियत से कुछ वास्ता । जो कुछ वसीयतनामा मैं लिख चुका हूँ आशा है कि तुम ईमानदारी के साथ उसी के मुताबिक कार्रवाई करागे तथा मेरे रिश्तेदारों को धीरज व दिलासा देकर रोने-कलपने से बाज रक्खोगे आज मै इस स्थान का छोड अपने गुरु के साथ बदरिकाश्रम की तरफ जाता हूँ और काजर की कोठडी १२४९ ७९