पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/२४८

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दि उधर ही किसी जगल में तपस्या करके शरीर-त्याग दूंगा। अब हमारे लौटने की रत्ती भर आशा न रखना और जिस तरह मुनासिब समझना घर का इन्तजाम करना । -लालसिह चिटठी पदकर पारसनाथ तबीयत मता बहुत खुश हुआ मगर जाहिर में रोनी सूरत बनाकर अफसास करने लगा और दस-वीस बूंद आसू की गिराकर उस चिट्ठी लाने वाले स यो चोला- पारस- तुम्हारा नाम क्या है? आदमी-लोकनाथ । पारस-मकान कहा है? लोकनाथ - काशीजी। पारस- हमार चाचा साहब न तुम्हार सामने ही सन्यास लिया था? लाक - जी हाँ उस समय जा कुछ उनके पास था दो सौ रूपये मुझ देकर बाकी सब दान कर दिया और यह चिटठी जा पहिले ही लिख रक्खी थी दकर कहा कि यह चिटटी मरे भतीजे के पास पहुंचा देना और जा दो सौ रूपये हमन तुम्हें दिये है उसे इसी की मजूरी समझना। दूसर दिन जब व दण्ड कमण्डल लिय हुए हरिद्वार की तरफ चले गय तय में भी किराये के इक्के पर सवार हाकर इस तरफ रवाना हुआ। पारस - अफसोस ! न मालूम चाचा साहब का क्या सूझी। उनका अगर पता मालूम हो तो मैं उनके पास जसर जाऊं ओर जिस तरह हो घर लिवा लाऊँ। अगर सन्यास ले लिया है तो क्या हुआ, अलग बैठे रहेंगे, हम लोगों को आज्ञा दिया करगें । उनक सामन रहने ही स हम लोगों का आसरा बना रहेगा। लोक-एक ता अब उनका पता लगना ही कठिन है. दूसर वह एसे कच्च सन्यासी नहीं हुए हैं जो किसी के समझान- वुझान से घर लौट आवेंगे । अव आम लोग उनका ध्यान छोड़ दें और घर-गृहस्थी के घन्धे में लगें। पारस - तो क्या अब हम लोग उनकी तरफ स विल्कुल निराश हो जायें ? लाक - नि सन्दह | अच्छा अब मुझे विदा कीजिये तो में अपने घर जाऊँ ? पारस - नहीं नहीं अभी तुम विदा न किये जाओग। अभी मैं हवली (महल) में जाकर औरतों को यह सम्वाद सुनाऊँगा कदाचित चाची साहिया को नुमसे कुछ पूछन की जरूरत पड़े। इसके बाद उनकी आज्ञानुसार कुछ देकर तुम्हारी विदाई की जाएगी तब तुम अपने घर जाना। ला- ठीक है आप इसी समय महल में जाकर अपनी चाची साहया से जो कुछ कहना-सुनना हो कह-सुन लें. यदि उन्हें कुछ पूछना हो तो मैं जवाब देने के लिए तैयार हूँ, परन्तु किसी के रोकन से मे यहां रुक नहीं सकता और न विदाई या भाजन के तौर पर कुछ ल ही सकता हूं क्योकि एसा करन के लिए लालसिह ने मुझे कसम दिला दी है बल्कि यहाँ तक कसम दकर कह दिया है कि जब तक तुम वहाँ रहना तब तक अन्न-जल न छूना। इसलिए मैं कहता हूँ कि मुझे यहाँ से जल्द छुटटी दिलाइय क्योंकि इस इलाके से बाहर हा जाने क बाद ही मै अपने खाने-पीने का बन्दोवस्त कर सकूँगा। मुझे इस काम की पूरी मजदूरी लालसिह दे गय है, अस्तु अब मैं उनकी कसम को टाल कर अपना धर्म न बिगाइँगा। लाकनाथ की बातें सुनकर पारसनाथ का ताज्जुब मालूम हुआ मगर वास्तव में ये सब बातें उसकी दिली खुशी को बढाती जाती थीं। वह हाथ में चिट्ठी लिए हुए वहाँ स उठा और सीधे अपनी चाची के पास चला गया। जो कुछ देखा- सुना या वयान करन क याद उसने लालसिह की चिट्ठी पढ़ कर सुनाई। सब कुछ सुन कर जवाब में उसकी चाची ने कहा 'हा यह तो होना ही था व पहिले से ही कहते थकि अब हम सन्यास ल लेंगे। उन्होंने तो जो कुछ सोचा सो किया मगर अब दुर्दशा हम लोगों की है ।। इतना कह के लालसिह की स्त्री आँखों से आंसू गिरान लगी। पारसनाथ उसे बहुत कुछ समझा-बुझा कर शान्त किया और फिर लाकनाथ के चार में पूछा कि वह जाने को तैयार है जब तक यहा रहेगा पानी भी न पीयेगा, उसे क्या कहा जाय? लालसिह की स्त्री ने जवाब दिया, मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास है और यह चिट्ठी भी ठीक उनके हाथ की लिखी हुई मौजूद है फिर मैं उस आदमी से क्या पूछूगी और उस किसलिए अटकाऊँगी? तुम जाओ और उसे बिदा करकमर पास आआ। पारसनाथ खुशी-खुशी बाहर गया जहां उसने दो चार यार्न करके लाकनाथ को विदा कर दिया। इसके बाद खुशी- खुशी एक चिटठी लिख कर अपने खास नौकर के हाथ किसी दोस्त के पास भेजकर पुन महल के अन्दर चला गया। बारहवां बयान आज हम फिर हग्नन्दन और उसके दोस्त गमसिह का एक साथ हाथ में हाथ दिए उसी बाग के अन्दर सैर करते हुए देखते है जिसमें एक दफ पहिल देख चुक है। यों तो उन दोनों में बहुत देर से वातें हो रही हैं मगर हमें इस समय की थाडी सी ही बातों का लिखना जरूरी जान पडता है। देवकीनन्दन खत्री समग्र १२५०